मंगलवार, 23 जनवरी 2018

क्या कला बाजार की शै है...?

(किसी कलाकार द्वारा तैयार कृति उसके आत्म आनन्द की चीज है या फिर बाजार में बिकने वाली कोई वस्तु? यह प्रश्र हमेशा से कलाकार के साथ समाज को भी व्यथित करता है। स्वयं रचनाकार अपनी ही रची हुई कृति का मोलभाव करते हुए अपराधबोध की अनुभूति करता है। क्या यह अनुभूति सही है? क्या कला बाजार के लिए है? कुछ ऐसे ही प्रश्रों का जवाब है प्रस्तुत लेख।  -सं.)
क्या कला बाजार की शै है...?
कला आत्मानुभूति या आनन्द के लिए, कला मेरे मन की भूख को शांत करती है, मैं जो रच रहा हूं स्वयं के लिए रच रहा हूं जैसे शब्द आज के दौर में भी कई कलाकारों के मुख से अक्सर सुनने को मिलते हैं। समाज की मान्यता भी है कि ऐसा सोचने वाले कलाकार ही सही अर्थों में कलाकार हैं, गीता के गूढ़ ज्ञान को समेटे हुए कर्म करते हुए भी निर्विकार भाव वाले।  ... लेकिन जब ऐसा बोलने वाले कलाकार की कृति की कीमत बाजार तय करता है और उसे खासी धनराशि की प्राप्ति होती है या फिर ऐसे कलाकार अपनी कृति के लिए बायर की तलाश करते नजर आते हैं तो एक सामान्य व्यक्ति के जेहन में कई प्रश्र पनपा जाते हैं। कला को खुलमखुला बाजार से जोड़कर बात करने पर कला व संस्कृति से जुड़े लोग आज भी चौंक उठते हंै। ऐसे लगता है मानो कोई भारी आपराधिक बात कह दी गई हो। यह भावना कलाकार वर्ग की भी है लेकिन फिर भी कुछ खुले, कुछ छुपे रूप में छोटे-बड़े आर्टिस्ट अपनी कृतियों को बेचने के लिए उप्युक्त व्यक्ति की तलाश में नजर आते हैं।
क्या कला बाजार की शै है? निश्चित रूप से है। क्योकि यह एक भौतिक वस्तु के रूप में है जो अपने रचनाकार के जीवनयापन में सहयोगी है। कलाकृतियों से प्राप्त धनराशि से उसका परिवार पलता है। राजपरिवारों के समय में कलाकार के परिवार की जिम्मेदारी राजा की होती थी और कलाकार राजा के मत के साथ स्वान्त सुखाय के लिए भी अपनी कृति को आकार दे पाता था। जमाना पल्टा है तो सोच में भी तब्दिली आवश्यक हो गई है। कलाकार के कांधों पर भी परिवार पालन का उतना ही भार है जितना कि आम आदमी के कांधों पे।
मन को संवेदनाओं से भरने वाले किताबी वाक्य भोथरे से होकर रह गए हैं। कला और बाजार के अन्त:सम्बन्धों का यथार्थवादी चेहरा सामने आ गया कि कला की उपयोगिता बाजार के लिए है। उद्योगपति एवं व्यावसायी इसे रीयल एस्टेट के नए रूप को देख रहे हंै। कला जीवन की भौतिक जरूरतों की पूर्ति के लिए एक जरिया बन गई है। आखिर इस महंगाई के दौर में कितने कलाकार इस धरती पर इतने समृद्ध होंगे जो घर की पूंजी लगाकर कैनवास, कूंची और रंगों को खरीदकर स्वान्तसुखाय कला कर्म करते रह सकते है? वैश्विक आर्थिक उदारवाद का सबसे बड़ा लाभ कला जगत को ही हुआ है।
यह मानना कहां तक उचित होगा कि बाज़ार और सौंदर्य शास्त्र एक दूसरे के विरोधी हैं। देखा जाए तो चित्र बनाना और बेचना एक-दूसरे से जुड़े हुए काम हैं। इनमें विरोध का कोई रिश्ता नहीं दिखता। मुद्दे की व ध्यान देने की बात तो यह है कि इस रिश्ते के चलते कला तो प्रभावित नहीं हो रही ? उसकी स्वाभाविकता एवं मौलिकता तो नष्ट नहीं हो रही? बाज़ार के दबाव में कलाकार की सृजनशीलता तो प्रभावित नहीं हो रही?
बाजार के साथ कलामूल्यों व विचारों के संतुलन का पैमाना सही है तो यह कहना गलत नहीं होगा कि कला कलाकार के विचारों का वो सामाजिक सिलसिला है जो बाजार को प्रभावित करने की क्षमता रखता है।
                                                                                                                                              -गायत्री

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