मंगलवार, 31 मार्च 2009

सुनो....छोटी सी गुडिय़ा की लम्बी कहानी


जयपुर में 'पुतुल यात्रा'

मूमल नेटवर्क, जयपुर। मंदी के माहौल में क्लोजिंग की आपाधापी के बीच जयपुरवासियों के लिए मार्च का आखिरी सप्ताह बचपन की गुडिय़ों वाली सुहानी यादों को ताजा करने वाला रहा। संगीत नाटक अकादमी, नई दिल्ली और जवाहर कला केन्द्र, जयपुर की और से यहां 21 से 31 मार्च तक आयोजित 'पुतुल यात्रा' में देश के कमोबेश तमाम प्रदेशों की गुडिय़ों का मेला लगा। कार्टून करेक्टर्स के साथ बचपन बिता रहे बच्चों के लिए जहां ये कौतुहल का मेला रहा, वहीं उनके अभिभावकों के लिए यह बचपन की यादों का मेला बना।

हालांकि यहां न तो दादी-नानी द्वारा घर के पुराने कपड़ों से पोतो-पोतियों के लिए जतन से बनाई गई कोई गुडिय़ा थी, ना आज की कोई लेटेस्ट बार्बी डॉल की व्यापक रेन्ज। ना पड़ौस गुड्डे के संग ब्याहने को तैयार कोई घरेलू गुडिय़ा रानी नजर आई, ना मेलों में मिलने वाला बबुआ ही कही दिखा। फिर भी बहुत कुछ था जो सीधे बचपन से जुड़ा था और सराहनीय था। पूरे प्रदर्शन पर गुडिय़ों के नाम पर कठपुतलियों का वर्चस्व छाया हुआ था। इस प्रदर्शनी में जहां विभिन्न प्रांतों में इस कला की दशा और दिशा की बानगी देखने को मिली वही पुतुल यात्रा में इससे जुड़े विविध विवरणों से पुतुल संबंधी तथ्य पुतुल प्रेमियों तक पहुंचाने की यह अकादमी की कोशिश कारगर रही।

पुतुल निर्माण के नजरिए से तीन श्रेणियों में बांटी गई पपेट्स में धागा, छड़ और दस्ताना पपेट्स के जरिए 27 से 31 मार्च तक विभिन्न प्रस्तुतियों के माध्यम से जेकेके में शानदार समा बंधा रहा। विभिन्न प्रदेशों से आए नामी-गिरामी कलाकारों ने राजस्थानियों को यह अहसास कराया कि केवल कठपुतली के नाम से जानी जा रही इस कला का दायरा कितना बड़ा, मनोरंजक और ज्ञान वर्धक है। पुतुल यात्रा ने इस बात का भी भान कराया कि यह कला कितनी सजीव और मानस पटल पर कहीं भीतर तक उतर जाने वाली है। शायद यही कारण है कि कभी राजा-महाराजाओं की यशगाथा कहने के लिए इनका सहारा लिया जाता था और आज के कई पापुलर टीवी चैनल अपनी बात कहने के लिए इनका ही सहारा ले रहे हैं। लिज्जत पापड़ का कुर्रम-कुर्रम वाले पावरफुल एड का असर कौन नहीं जानता?

वहीं इस कला का दूसरा पहलू यह है कि संगीत नाटक अकादमी अगर ऐसे आयोजन न करे तो यह कला दर्शकों के लिए तरस जाती है। अब कही दिखती भी है तो उन पार्टियों के बीच कहीं कोने में, जहां कुछ गिने-चुने बच्चों के अलावा कोई नहीं होता। पुतुल कलाकारों का कहना था कि कुल मिलाकर स्थिति अच्छी नहीं है। ऐसे हालात में इस कला को ज्यादा दिन जिंदा रख पाना कठिन होगा।

मूमल व्यूज - कठपुतली कला दर्शकों को तरस रही है। इसका सब से बड़ा कारण यह लगता है कि यह ओवर प्रोजेक्ट होती जा रही है। क्योंकि आज हर किसी को हर कहीं कठपुतलियां नजर आ रही हैँ। कमोबेश हर कोई किसी न किसी के हाथ की कठपुतली है। यहां तक कि जो किसी को नचा रहा है, खुद उसकी डोर भी किसी न किसी के हाथों है। वह केवल नचा ही नहीं रहा नाच भी रहा है। अब आप ही बताईये, जब हर जगह हम यही सब देख और जी रहे हैं तो अलग से कठपुतली का खेल देखने का वक्त कहां से निकाला जाए? बताईये..... दिल पर हाथ रख कर बताईए ना।