मंगलवार, 7 अप्रैल 2015

ललित कला अकादमी सरकार देखेगी

सरकार ने ललित कला अकादमी का प्रबंध अपने हाथ में लिया

मूमल नेटवर्क, नयी दिल्ली। ललित कला अकादमी में प्रशासनिक और वित्तीय अनियमितताओं का हवाला देते हुए सरकार ने इस संस्था का प्रबंधन अपने हाथ में ले लिया है। इसके बाद अकादमी के बिहार स्थित पटना व  अन्य क्षेत्रीय केन्द्रों के कामकाज की समीक्षा भी होगी। 

गड़बड़ी और निकम्मेपन का पर्याय बन गई ललित कला अकादमी के कामकाज को अब केन्द्र सरकार का संस्कृति विभाग देखेगा। ललित कला अकादमी संस्कृति मंत्रालय के तहत एक स्वायत्त संस्था है। जानकारों ने बताया कि पिछले कुछ वर्षों से संस्कृति मंत्रालय को ललित कला अकादमी में कथित प्रशासकीय एवं वित्तीय अनियमितताओं के बारे में शिकायतें मिलती रही थीं। आपस में भिड़ते अफसर और कुछ खास मुकदमों के कारण वर्ष 2013 से ललित कला अकादमी की सामान्य परिषद एवं कार्यकारी बोर्ड भी कार्यरत नहीं हैं। यही नहीं, ललित कला अकादमी के प्रमुख कार्यकारी अधिकारी यानी सचिव फिलहाल निलंबित हैं और अकादमी के अध्यक्ष ने उनके खिलाफ विभागीय जांच के आदेश दे दिये हैं। 
जानकारी के अनुसार,ललित कला अकादमी के मुश्किलों से घिरे प्रशासन और अकादमी के गतिशील एवं पारदर्शी कामकाज में आम जनता के व्यापक हित को ध्यान में रखते हुए केंद्र सरकार ने बीती 1 अप्रैल से अकादमी का प्रबंधन अपने हाथ में लेने के लिए संस्कृति मंत्रालय के जरिये अकादमी की कार्य शर्तों के संबंधित प्रावधानों का इस्तेमाल किया है। फिलहाल संस्कृति मंत्रालय में अपर सचिव श्री के.के. मित्तल को ललित कला अकादमी का प्रशासक नियुक्त किया गया है। उनकी नियुक्ति अगले आदेश तक प्रभावी रहेगी। वे आईएएस अफसर हैं। ललित कला अकादमी अपने काम से भटक गई थी। यहां के अफसर कोई काम करके राजी नहीं थे।
इसी के साथ विभिन्न प्रदेशों में  राज्य सरकारों के आधीन कार्यरत अकादमियों की  गतिविधियों की समीक्षा की जरूरत भी महसूस की जाने लगी है। 

बुधवार, 1 अप्रैल 2015

दस बरस पूरे होने पर

अपनों से कुछ बेपर्दा बातें 
गत दस बरस से हर पखवाड़े पाठकों तक कला जगत की चुनिंदा गतिविधियों की खबर पहुंचाना अपने आप में कितना खास है हमसे बेहतर केवल एक वास्तविक कलाकार ही जान सकता है। कला के नाम पर कलाबाजियां करते रहने वालों के लिए ये महसूस करना उनकी सोच के दायरे से बाहर की बात है। गत दस सालों में मूमल का एक-एक अंक कैसे निकला है ये वही जानते हैं जिन्होंने मूमल को करीब से देखा है। साल में 24 अंक, अब तक लगभग 240 अखबार। लगभग इसलिए क्यों कि कई बार अंक छप भी नहीं पाते। जाहिर है प्रमुख कारण आर्थिक होता है।
बाजारू नहीं
मूमल अपने प्रत्येक पाठक को एक विचार मानता है, बाजार नहीं। यही कारण है कि कला जगत में लगभग सब जानते और देखते भी हैं कि मूमल में बाजारू विज्ञापन नहीं होते। होते भी हैं तो केवल कला गतिविधियों या कला संस्थानों के वे विज्ञापन जिनसे पाठकों को जानकारी या सूचना मिलती हो। इसके अलावा होली, दिवाली या वार्षिक अंक पर शुभकामना के विज्ञापन, वह भी केेवल कलाकारों के। जब पैसे की बहुत तंगी होती है तो हम आगे बढ़कर कला संस्थानों और संगठनों से उनके विज्ञापन या अन्य किसी रूप में धन मांगते हैं। ऐसे अनेक सहयोगी कलाकार हैं जो धन नहीं दे पाते तो अपने काम मूमल को देकर कहते हैं कि इसे बेच कर अपना काम चलाईये, लेकिन इस अखबार को जिंदा रखिए।
ये  हैं ताकत
मूमल का सबसे बड़ा आर्थिक संबंल उसके पाठक हैं। वो वरिष्ठ जो कला की गरिमा बनाए हुए हैं या वे युवा और संर्घषशील कलाकार, जो इसे पैसे देकर खरीदते हैं। वे केवल कुछ पन्नों के पतले से अखबार के लिए 250 रुपए खुशी-खुशी निकालते हैं। जबकि उनका हाथ कथित बड़े कलाकारों की तुलना में काफी तंग होता है। 
वे वजूद मिटाएंगें
दूसरी ओर कुछ कथित बड़े कलाकार मूमल को व्यवसायिकता का तकाजा समझाते हुए ये बतातें हैं कि किस-किस बड़े कलाकार को मूमल फ्री भेजा जाना चाहिए। ये वे कलाकार हैं जो मूमल में छपना भी चाहते हैं और ये उम्मीद करते हैं कि मूमल एपाइन्टमेंट लेकर उनसे मिले और उनकी गतिविधियां पता करके छापे। नहीं तो उन्हें मूमल जैसे छोटे से अखबार का वजूद मिटाने में वक्त नहीं लगेगा।  मूमल से जुड़ा हर कलाकार यह अच्छी तरह से जानता है कि मूमल के संसाधन कितने सीमित हैं। लेकिन बिना किसी पहल के छपने के इच्छुक वे कथित बड़े कलाकार सच्चाई के साथ ना तो जुडऩा चाहते हैं और ना ही जोडऩा। अपने अहम् भाव के चलते कला जगत के पूरे परिदृश्य में उन्हें केवल अपने हित ही सर्वोपरी दिखते हैं।
जो मूमल के संसाधनों के बारे में जानते हैं वे आगे बढ़ कर मूमल को सूचनाएं और जानकारियां उपलब्ध कराते हैं। देखा जाए तो वहीं सच्चे संवेदनशील कलाकार हैं। ऐसे में जो जानकारी देते हैं और बिदांस बोलते हैं, जो गुस्सा जाहिर करते हैं तो उस पर कायम भी रहते हैं। वे मूमल के आवरण प्रष्ठ पर प्रमुखता से छपते हैं। यहां यह बताने की जरूरत नहीं कि ऐसे अनेक वरिष्ठ हैं जो चाहते हैं कि उनके समकक्ष साथियों की पोल मूमल खोले। फिर कुछ देर बार ही वे पोल खुलवाने वाले सज्जन कलाकार उन्हीं साथी कलाकार के साथ अति आत्मीयता के साथ बात करते नजर आते हैं। ऐसे बड़े कलाकारों के लिए क्या कहा और सोचा जाए?
एक और नमूना
एक और उदाहरण प्रस्तुत है, पिछले साल जब दिल्ली की ललित कला अकादमी की कुछ अनियमितताओं में जयपुर का भी नाम आया तो एक महिला कलाकार शिक्षिका ने कहा कि जो जैसा करता है वैसा ही भरता है। ऊपर वाले की लाठी जब चलती है तो आवाज नहीं होती। कई उपाधियां देते हुए उन्होंने राजस्थान ललित कला अकादमी, कला मेला  और आर्ट समिट की गतिविधियों पर काफी कड़ी टिप्पणियां की। इस बारे में वरिष्ठों से चर्चा की गई तो उन्होंने सकारात्मक सोच रखते हुए इसे नजरअंदाज करने की सलाह दी। अब वहीं कला शिक्षिका जब 18वें कला मेले की आयोजन समिति में चुन ली गई तो अकादमी की कार्यप्रणाली पर कोई प्रश्र शेष नहीं रहा। बल्कि मूमल में मेले की विफलता के समाचारों पर आपत्ति करती नजर आईं। कुल मिलाकर हम दस सालों में भी ये नहीं समझ पाए कि आखिर किसके दिखाने के दांत कौन से हैं और खाने के दांत कौन से?
गिनती के कुछ लोग
दस सालों के इस सफर ने यह तो समझा ही दिया है कि 15-20 की सीमित संख्या वाले वो कलाकार जो खुद को  कला जगत के प्रतिनिधी रूप में प्रस्तुत करते हैं। जो स्वयं विशेष कर नहीं पाते, लेकिन उन युवाओं पर अपना सिक्का चलाना चाहते हैं जो दुनिया को बहुत कुछ कला की नई सोच के रूप में दे सकते हैं। मूमल को कला मेले के दौरान, इससे पहले और बाद में ऐसे कई पत्र, सुझाव, सांकेतिक कहानी और चित्र प्राप्त हुए हैं। इनमें युवा कलाकारों ने अपने-अपने क्रिएटिव अंंदाज में कला मेले के समय काल को परिभाषित किया। विसंगतियों को उजागर किया। यह साफ महसूस हो रहा है कि यदि समय रहते इन विसंगतियों के उचित समाधान नहीं निकाले गए तो ये विद्रोह कला के इतिहास में अंकित होगा। 
अब और नहीं 
पिछले कुछ अर्से में संवेदनशील और संर्घषशील कलाकारों ने यह स्पष्ट संकेत दे दिए हैं कि वे प्रदेश में कला जगत के स्वयंभू प्रतिनिधियों को और बर्दाश्त नहीं करेंगे। वे पुरानी कुंठित सोच लिए स्वयं कुछ कर नहीं पाते और नई पीढ़ी को कुछ करने का मौका नहीं देना चाहते। ऐसे मेंं अब गंभीरता से विचार का समय आ गया है कि ऐसे विभिन्न चेहरों वाले गिने-चुने वरिष्ठों के लिए कौन सा स्थान निर्धारित करे? 
ऐसे में अब लग रहा है कि सकारात्मकता की कृत्रिम बातें करते हुए नकारात्मकता की गंदगी को छुपाने की बजाए एक सीमा तक उसे जगजाहिर किया जाए। एक आईने की तरह जो है, जैसा है बताया जाए। जाहिर है इसके बदले में कुछ कठिनाइयां और बढ़ जाएंगी, प्रभावित लोग वजूद खत्म करने की कोशिश भी करेंगे, लेकिन हम यह मानते हुए न केवल बने रहेेंगे बल्कि सुधि पाठकों और सच्चे शुभचिंतकों के साथ आगे भी बढ़ते रहेंगे...
क्योंकि, 
जो लोग चाहते हैं मिटाना मेरा वजूद
उनकों खबर नहीं फना हो चुकी हूं मै...
                                         -मूमल

दोहरे चरित्र कैसे करेंगे अधिकारों की रक्षा ?


कर्म में संतुष्टि साधु स्वभाव का परिचय है, लेकिन कोई आपके उस संतुष्टि देने वाले छोटे से भाग पर भी अपना अधिकार जमा कर आपको बेदखल कर दे तो यह सहन करने योग्य नहीं है। अपने हिस्से पर अधिकार की लड़ाई और उसे संरक्षित करना इंसानी धर्म है। इसी को श्रीमद् भगवत गीता में कर्म की शिक्षा के रूप में अंकित किया गया है।
कला क्षेत्र का एक बहुत बड़ा तबका विजूअल आर्टिस्ट का है।  जब भी किसी कला आंदोलन की बात सामने आती है तो यह तबका परिदृश्य पर नजर नहीं आता। तंग गलियारों और बंद कमरों में एक दूसरे के कांधे पर बंदूक रखने के लिए एक दूसरे को सहलाता-बहलाता यह तबका कभी सामने के मोर्चे पर डटा हुआ नहीं दिखता। हां इनके अधिकारों के लिए यदि किसी और ने लड़कर विजय के रूप में अधिकार पाए हैं तो अपने हिस्से को पाने के लिए जरूर उग्र व आक्रमक नजर आता है। जिनकी पीठ पीछे आलोचना करता है उन्हीं के आगे-पीछे अपने तुच्छ हितों की खातिर मंडराता दिखता हैै। अपनी कर्महीनता को वो कला की संवेदना के पर्दे में ओढ़कर पेश करने का अच्छा खिलाड़ी है। 
दूसरी और इसी तबके का एक भाग स्वयं को तटस्थ बताने वाले लोगों का भी है। जो 'ना काहू से दोस्ती, ना काहू से बैरÓ को अपना जीवन मंत्र मानकर सही और गलत के प्रति आंख मूंदे बैठे हैं। ऐसी स्थिति भी विकट है। क्योंकि जब उनकों अपने हितों के लिए सही और गलत की लड़ाई लडऩी पड़ी है तब वह भरी महफिल में तन्हा हो जाते हैं। तटस्थ व्यक्ति समाज के हित में गलत के प्रति चुप्पी साधकर बहुत बुरा कार्य करता है। 

विजुअल आर्टिस्ट को चाहिए की अपनी अकर्मण्यता और तटस्थता को छोड़कर अपने और समाज के वास्तविक हितों को समझे, अधिकारों व दायित्वों के प्रति सतग रहे। सत्ता और शक्ति का गुलाम ना बने। इस बात को समझने का प्रयास करें कि कला जगत में बुरे लोगों की सक्रीयता इतना नुक्सान नहीं पहुंचाती जितना नुक्सान अच्छेे लोगों की निष्क्रीयता या तटस्थता से होता है।
मंचीय कलाकारों के समान साहसी बने तो आज विजुअल आर्टिस्ट की खामोशी से सहन करने वाले की जो छवि है, वह टूटेगी। हम जब हमारे हितों, अधिकारों और दायित्वों के प्रति सजग रहेंगे तो किसी में साहस नहीं होगा कि वह कलाकार के अधिकार क्षेत्र पर डाका डाल सके। जब हमारे बीच सहनशीलता और उग्रता का संंतुलन कायम होगा तब ही हम वास्तव में गरिमामय कहलाएंगे। वो सब कुछ जिससे हम चुप्पी और पीछे हट जाने की आदत के चलते वंचित रह जाते हैं,  बिना किसी लाग-लपेट के हमारे साथ होगा। बस हमें हमारे दोहरे चरित्र के खोल से बाहर निकल कर आना पड़ेगा क्योकि दोहरा चरित्र ना तो कभी अपनी वास्तविक पहचान कायम कर पाता है ओर ना ही अपने अधिकारों का संरक्षण ही। 

अपनी लड़ाई खुद को ही लडऩी पड़ती है। कोई अन्य आपकी मदद तब ही कर पाता है जब आप अपने अधिकारों के प्रति सजग हों। गीता के इस चिर ज्ञान को आत्मसात करते हुए जयपुर के रंगकर्मियों ने आन्दोलनकारियोंं का बाना धारण कर लिया है। लेकिन कला व संस्कृति के अन्य प्रबल पक्षों में किसी बात को लेकर कोई हलचल नहीं है। वो पक्ष 'जो बोले वो कुंडी खोलेÓ के डर से सोए हुए हैं या अज्ञानता की बेहोशी में खोए हुए हैं, इस बात को समझना पड़ेगा।