यादों में जीवित सुरेन्द्र पाल जोशी
कला जगत में कभी भी ना भर सकने वाले अपने स्थान को रीता छोड़ कर देश के प्रख्यात चित्रकार जोशी ने इस दुनिया से विदा ली। सुरेन्द्र पाल जोशी के जाने का दुख जितना उनके परिवार जनों को रहेगा उतना ही उनके करीबी मित्रों व पूरे कला जगत को भी। अपनी कला के साथ, ठसक व स्वाभिमान के लिए पहचाने जाने वाले जोशी ने विदा होने से पहले कला जगत के लिए अमूल्य विरासत छोड़ी है।कुछ लेने नहीं बल्कि बहुत कुछ देने की ईश्वरीय सौगात लिए इस कलाकार का जन्म 1955 में देहरादून के मनियारवाला (गुनियालगांव) गांव में हुआ। कला के अंकुर स्कूली जीवन में ही नजर आने लगे थे। ऋषिकेश से बीए करने के बाद 1980 में लखनऊ के आट्र्स एंड क्राफ्ट्स कॉलेज में दाखिला ले लिया। और...फिर यहां से कला का जो सफर शुरू हुआ, वह कला जगत में नए कीर्तिमान स्थापित करता चला गया।
जोशी की साधना के शुरुआती साल बेहद गर्दिशभरे रहे लेकिन उनकी जीवटता ने जीत हासिल की। ...और उतरांचल के इस कलाकार ने राजस्थान को अपनी कर्मभूमि के रूप में चुनते हुए 1988 में राजस्थान स्कूल ऑफ आर्ट, जयपुर की फाइन आर्ट फैकल्टी के सहायक प्राध्यापक पद को ज्वाइन किया।
मूमल से जोशी जी का पहला परिचय राजस्थान स्कूल ऑफ आर्ट में सन् 2006 में हुआ जो 2013 के जयपर आर्ट समिट के पहले एडीशन के साथ गहरा हुआ। बहुत ही धीमें से अपनी बात रखना उनके स्वभाव में शामिल था। अपनी कला यात्रा के बारे में मूमल से उनकी अक्सर बात हुआ करती थी। उन्होंने बताया था कि, म्यूरल बनाने का मुझे शौक था और उस श्रप में पहचान भी मिली। आइओसी दिल्ली, यूनी लिवर मुबंई, शिपिंग कॉर्पोरेशन विशाखापत्तनम आदि स्थानों पर म्यूरल बनाए। वर्ष 1997 में ब्रिटेन से फैलोशिप मिलने के बाद वहां भी म्यूरल पर कार्य किया। लेकिन, वर्ष 2000 के बाद मैंने सिर्फ पेंटिंग पर ध्यान देना शुरू कर दिया। पेंटिंग में कई नए-नए प्रयोग किए और कई देशों में इसके लिए सम्मान भी मिला।
कलाकार के मन की उड़ान उन्हें बंधनों से आजाद होने की प्रेरणा देती रही और 2008 में राजस्थान स्कूल ऑफ आर्ट से सेवा निवृति लेकर पूरी तरहा से कला साधना में जुट गए। शिक्षक रहते हुए ही नव कलाकारों के लिए उनके मन में कई खयाल आते- जाते रहते थे। परिणाम के रूप में कुछ साल पहले अपना श्रम और धन लगाकर उतराखण्ड सरकार के सहयोग से अपनी जन्मभूमि देहरादून में पहले राजकीय कला संग्रहालय की स्थापना की। मूमल को अपने अपने की बात साझा करते हुए उन्होंने कहा था कि, यह संग्राहलय और गैलेरी प्रदेश के कला साधकों के लिए एक बेहतर मंच साबित होगा। इस संग्राहलय के बनने के साथ ही जोशी देश के ऐसे पहले कलाकार बन गए जिनके जीवित रहते उनकी कला को स्थायी रूप से प्रदर्शित करता हुआ राजकीय संग्राहलय देश को समर्पित हुआ।
जोशी की कला यात्रा केवल म्यूरल्स व पेंटिंग तक ही सिमटी नहीं रही। उन्होंनें एक लाख सेफ्टीपिन से बना हैलीकॉप्टर, 70 हजार सेफ्टीपिन से बना हैलमेट, फिल्म स्ट्रिप से बना आर्कीटेक्चर स्ट्रेक्चर बनाकर कला प्रेमियों का मन मोह लिया। समाज व देश के प्रति संवेदा के चलते उन्होंनें फिल्म निर्माण के क्षेत्र में कदम रखा। इस वर्ष की शुरुआत यानि जनवरी के प्रथम सप्ताह में जयपुर इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल में उनके द्वारा निर्मित वृतचित्र पहाडग़ाथा की स्क्रिनिंग की गई। इस वृत चित्र में केदार घाटी में आई भीषण बाढ़, उससे जूझते लोग एवं बचाव व राहत कार्य को बहुत ही कलात्मक तरीके से फिल्माया गया था। इतनी सारी विधाओं पर एक साथ कार्य करने के तालमेल पर हुई एक वार्ता के दौरान जोशी जी ने मूमल से कहा था कि, विधा में बदलाव जोखिमपूर्ण जरूर है, किन्तु यदि इसे चुनौती मानते हुए पूरा अभ्यास किया जाए तो सफलता जरूर मिलती है।
अपनी कला के दम पर उन्होंने एशियन कल्चरल सेंटर फॉर यूनेस्को, (जापान), ऑल इंडिया अवार्ड, राजस्थान ललित कला ऐकेडमी, फैलोशिप फॉर म्यूरल डिजाइन बाई द ब्रिटिश ऑट्र्स काउंसिल, नेशनल अवार्ड, ललित कला ऐकेडमी (नई दिल्ली), राजीव गांधी एक्सीलेंस अवार्ड (नई दिल्ली), गोल्ड मेडल यूनेस्को आदि जैसे कई पुरस्कार व सम्मान हासिल किए।
सम्मान, सफलता व जोखिम को अपना साथी मानने वाला यह कलाकार आज हमारे बीच नहीं है लेकिन उनकी कलाकृतियों के साथ उनकी यादों का सिलसिला हमेशा हमारे बीच उनकी मौजूदगी के एहसास को बनाए रखेगा। -राहुल सेन
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