गुरुवार, 15 मई 2014

चुनावी मुद्दों में लापता कला संस्कृति

चुनावी महासमर के बाद अब इसके परिणाम भी सामने हैं। राजनीतिक बयानबाजी से हमेशा दूर रहने वाली 'मूमल' ने चुनावी शोर के दौरान ममता बनर्जी की एक पेंटिंस पर हुई पॉलिटिक्स पर एक समाचार से अपने कलाकार पाठकों को जरूर अवगत कराया और कोई ऐसी चर्चा नहीं की जिससे किसी राजनीतिक दल की ओर उसका रुझान दिखे। अब यह विचार जगजाहिर किया जा सकता है कि लोकसभा के भीषण चुनावी महाप्रचार में होना तो ये चाहिए था कि मुद्दे भी उतने ही अर्थपूर्ण, सरोकारी और सुदूर भारत तक के होते, लेकिन ऐसा हुआ नहीं। सत्ता की ऐसी झपटमारी रही कि राजनैतिक गर्जनाएं तो खूब सुनी गई, लेकिन कला या सांस्कृतिक गूंज कतई नहीं। एक पेंटिंग को लेकर बवाल जरूर हुआ वह भी खालिस राजनीतिक। वह भी मनी लाड्रिंग का ऐसा मुद्दा जिस पर मूमल में एक साल पहले व्यापक चर्चा हो चुकी थी।
संस्कृति-विहीन चुनाव
आपने इसे आसानी से राजनैतिक दलों के चुनाव प्रचारों में देखा होगा। वहां लोगों की सांस्कृतिक जरूरतें अभिव्यक्त नहीं हो रही थी। क्या कला और संस्कृति और मनुष्य की कुल जमा बेहतरी के बारे में वहां कोई जगह आप देख पाए? कार्यकर्ता और समर्थक के तौर पर तो आपको कुछ बुराई नजर नहीं आएगी, लेकिन आम नागरिक की निगाह से देखें तो चुनाव 2014 एक संस्कृति-विहीन चुनाव दिखता रहा। जहां राजनैतिक बौखलाहटों, ताकत की इतराहटों और अट्टहासों के बीच गरिमा, नैतिकता और अन्य मानवीय मूल्यों की आपराधिक अनदेखी की जाती रही, वहां कला-संस्कृति की बात करना ही बेमानी था।
बस इतनी ही संस्कृति रही
...और सांस्कृतिक जरूरतों के नाम पर हम क्या देखते हैं? हम पाते हैं कि धर्म और आस्था के वही रटे-रटाए और न जाने कब से दोहराए जाते रहे प्रतीकों को ही हमारे लोगों अर्थात कलाकारों के आगे कर दिया गया। बस इतनी ही संस्कृति रही। मिसाल के लिए बनारस को ही लें। बनारस का ऐसा घाटकरण कर दिया गया, मानो उसके आगे और अंदर कोई बनारस ही न हो. सारी बहसें सारा मीडिया घाटों और नकली अध्यात्म के हवाले से चुनावी गणित में अपने तीर-तुक्के चलाता रहा।  वरिष्ठ पत्रकार रवीश कुमार ने अपने अनूठे रोड़ शो में ठीक ही कहा कि बनारस सिर्फ  घाट नहीं, वो उस बनारस को समझने के लिए निकले जो भारतीय भूगोल का एक अनजाना अदेखा और अस्पृश्य हिस्सा है। उन दलित उपेक्षित समाजों की कलात्मक और सांस्कृतिक जरूरत क्या बनारस का रंगारंग बनाया जा रहा चुनाव पूरी कर पाया? महापर्व बताए जा रहे चुनाव में इस बेहाली को शामिल क्यों नहीं किया जा सका? क्या ये नादानी रही या ये  एक सोचा-समझा गणित।
 काश! कोई तसल्ली मिलती
 इन चुनावों ने सबसे ज्यादा अगर आशंकित किया है तो सांस्कृतिक लिहाज से ही किया है। उग्र राष्ट्रवादी विचारधारा संस्कृति, कला और समाज के प्रति क्या नजरिया रखती हैं, ये कोई रहस्य नहीं। इसीलिए चिंताएं तो होगी ही। काश!  अगर राजनैतिक दलों के प्रचार अभियानों में हमें इन चिंताओं और आशंकाओं का जवाब मिल पाता। कोई तसल्ली मिलती, कोई पक्का ठोस नैतिक आश्वासन। कला अकादमियों पर कोई ऐक्शन प्लान।
एक बेढंगे राष्ट्र के निर्माण की दिशा
ऐसा लगता है कि देश के कला या सांस्कृतिक ढांचे की सुरक्षा की बात आते ही राजनैतिक दलों और उनके अंधभक्तों को नींद आ जाती है। चुनाव संस्कृति का इससे बड़ा अभिशाप और क्या हो सकता है कि मनुष्य जीवन की कलात्मक कोमलताओं, संवेदनाओं, अनुभूतियों और नैतिकताओं के निर्माण की कार्रवाइयों और प्रयासों से वो बिलकुल खाली हो। जो समाज अपनी कला और अपने लोक-मूल्यों की हिफाजत में नाकाम रहता है वो कितनी भी तरक्की कर ले, बढ़ता तो वो एक बेढंगे राष्ट्र के निर्माण की दिशा में ही है। इतिहास में इसकी कई मिसालें हैं।
सबसे जरूरी सांस्कृतिक जरूरत
एक चुनाव में एक मतदाता की सबसे मानवीय और सबसे जरूरी सांस्कृतिक जरूरत क्या हो सकती है? वो हो सकती है उसकी संवेदना और उसकी निजी खुशियों की सुरक्षा। उसके सांस्कृतिक भूगोल की रक्षा। अपनी मिट्टी, अपनी अभिव्यक्ति, अपनी भाषा और अपनी परंपरा से बेदखली से सुरक्षा। क्या आज का चुनाव और आज के राजनैतिक दल ये आश्वासन और ये भरोसा दिला पाने की स्थिति में हैं? क्या वे दिल पर हाथ रखकर कह सकते हैं कि उनके घोषणापत्रों में आम भारतीय जन की व्यथा-कथाओं और उनकी सांस्कृतिक अपेक्षाओं को समझने का कोई ईमानदार अध्याय है?
चलते...चलते मूमल अलर्ट
राजस्थान प्रदेश के परिपेक्ष में देखें तो यहां कला और संस्कृति के संरक्षण और कला गतिविधियों के नाम पर जो कुछ हुआ और हो रहा है वह किसी से छुपा नहीं है। 
आने वाले दिनों में गुलाबी नगर की कला और संस्कृति का केंद्र रही एक और विरासत का आमेर की हवेलियों वाला हश्र होने लगे तो हमें आश्चर्य नहीं होगा। लोग इसे आसानी से पचा लेगें..., लेकिन इन सांस्कृतिक चुप्पियों का क्या अर्थ है?  
हम एक एकांगी और खास आर्थिक सोच से निर्धारित सत्ता संरचनाओं की ओर बढ़ रहे हैं। हमारी बहुलतावादी संस्कृति और सांस्कृतिक सामाजिक वैविध्य इसकी इजाजत तो नहीं देते. उसकी खिड़कियों और दरवाजों ने अभी इतनी जंग नहीं खाई है कि कोई उन्हें उखाड़ कर वहां दीवार ही लगा दे।

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