क्या कला जगत में परंपरा की तिलांजली से ही आधुनिकता का बोध होता है? आधुनिकतावाद की धमकी चल रही है? अमूर्तन का आतंक व्याप्त है? कला चंचला होकर मौद्रिक हो गई है? भारतीय सौंदर्य दृष्टि को खारिज हो चुकी है? कलाकार स्वयं क्यों नहीं बोलता है? समझ के अहं से सुलगती कथित समीक्षाओं का बोझ क्यों ढोता हैं? ऐसे ही कुछ सुलगते सवालों से हमें रूबरू किया है वरिष्ठ लेखक और विचारक प्रभू जोशी ने।
यह अत्यंत विचारणीय तथ्य है कि भारत के अलावा दुनिया के किसी भी देश में ऐसा दुर्भाग्यपूर्ण उदाहरण नहीं मिलता, जहां अपनी परंपरागत चित्र-शैली के साथ इतना और ऐसा अवमाननापूर्ण व्यवहार किया गया हो। यूरोपीय कला-जगत में आज उनका यथार्थवाद उतना ही समादृत है, जितना आधुनिकतावाद। 'आधुनिकतावादÓ अपनी सम्मानजनक विदाई के बाद आज भी वहां की कला-पत्रिकाओं के पृष्ठों पर निरंतर अपने लिए उल्लेखनीय जगह घेरे रहता है। यही कारण है कि वहां न तो 'मोनालिसाÓ को दफ्न किया गया है और न ही 'गुएर्निकाÓ को।
केवल महलों के लिए नहीं
अगर हम यूरोप की बात छोड़ कर, अन्य एशियाई मुल्कों में देखें तो वहां का समाज अपनी परंपरागत चित्र-शैलियों का अभूतपूर्व सम्मान, संवर्धन और संरक्षण करता आ रहा है। चीन, जापान, कोरिया या थोड़ा आगे बढ़ कर सुदूर मैक्सिको की तरफ देखें तो वहां भी अपनी परंपरागत शैलियों में रची गई कृतियां केवल संग्रहालयों के ठंडे अंधेरे में उपेक्षा का जीवन जीने को अभिशप्त नहीं कर दी गई हैं। वे कला-प्रासादों की संपदा का हिस्सा नहीं, अलबत्ता सामान्य कला-प्रेमियों के स्पंदित आस्वाद का भी अंग हैं। यह जान कर सचमुच सुखद विस्मय होता है कि कला के 'समकालीनÓ मुहावरे में सृजनरत चित्रकारों से कहीं बड़ी बिरादरी इन मुल्कों में अपनी परंपरागत चित्र-शैलियों में काम करने वाले चित्रकारों की है और वे अपने कला-बाजार का एक बड़ा हिस्सा समेटे हुए हैं।
प्राप्ति के लिए स्वाहा
बदकिस्मती से भारत में शीतयुद्ध कालीन सांस्कृतिक कूटनीति ने 'आधुनिकतावादÓ से सम्मोहित ऐसे कलाकार और कला-मीमांसकों की बड़ी बिरादरी पैदा कर दी, जिसने भारत की सुदीर्घ कला-परंपरा के ध्वंस में संगठित रूप से काम किया। यहां याद करना रुचिकर होगा कि जब भारत स्वाधीन हुआ और नेहरू ने एक 'आधुनिकÓ भारत के निर्माण की राजनीतिक प्रतिज्ञा व्यक्त की तो सबसे पहले 'आधुनिकतावादÓ का वर्चस्व साहित्य के बजाय चित्रकला में बढ़ा। वहां कलाकारों को 'परंपराÓ के स्वाहा में ही 'आधुनिकताÓ के अभीष्ट की प्राप्ति का बोध हुआ। आधुनिकतावाद को लगभग एक धमकी की तरह इस्तेमाल किया जाने लगा।
भय के गर्भ से
यह निरस्तीकरण के भय के गर्भ से पैदा हुआ एक ऐसा सफल और अप्रकट नियंत्रण बना, जिसने आखिरकार परंपरा के 'दमनÓ का रूप ले लिया। अच्छे-भले और परंपरागत-शैली के दक्ष सर्जक, अपने 'स्वत्वÓ को खोकर इस 'आधुनिकतावादÓ के अधीन हो गए, जिसमें 'अमूर्तनÓ का आतंक समाहित था। दिलचस्प स्थिति तो यह थी कि लगे हाथ भारत में ऐसे मौलिक कला-विचारकों का उदय होने लगा, जिसे वे शैलीगत 'अमूर्तनÓ का उत्स भारत में ही सदियों से देखने और बताने लगे। यह काम अब भी उसी तरह जारी है।
कला है चंचला नहीं
हम सब जानते हैं कि आदर्श स्थिति यही होती है कि कला 'तात्कालिकताÓ के समक्ष कहीं अपना सर्वस्व ही समर्पित न कर बैठे। ऐसे समर्पण से इंकार का अर्थ 'शाश्वतताÓ से है और शाश्वतता, पूंजी के प्रवाह में विघ्न की तरह पहचानी जाती है। क्योंकि पूंजी की प्रकृति ही यही है कि वह चंचल से साहचर्य बनाती है। कहना न होगा कि कला को इतनी 'चंचलाÓ नहीं बनाया जा सकता, अन्यथा वह 'मौद्रिकÓ रूप धारण कर लेगी। और मुद्रा का रूप धारण करते ही वह कला के नियम और नैतिकताओं को त्याग कर बाजार के साथ हो लेगी। अब यह सर्वविदित है कि कला अपनी इसी चंचला-वृत्ति को अपना कर अब एक निवेश बन चुकी है।
भारतीय सौंदर्य दृष्टि खारिज
निश्चय ही चित्रकला में तीव्र प्रविधिजन्य-परिवर्तन 'अमूर्तनÓ के आग्रह के चलते आया। 'अमूर्तनÓ ने कला में केवल कला-सामग्री के प्रभाव-वैचित्र्य को कला के प्रमुख प्रतिमान का पर्याय बना दिया। परिणामस्वरूप जो कोई चित्रकार कुछ भी ऊटपटांग करने लगता, कला आलोचक उसके काम का स्वागत करने लगे। अगर स्वाधीनता के कुछेक दशक पूर्व और पश्चात के कला-विवेचनों को देखें तो वहां हमें अपनी 'समझ के अहं से सुलगतीÓ समीक्षाओं ने परंपरा से लगभग प्रतिशोध के स्तर पर मुठभेड़ करते हुए, भारतीय सौंदर्य दृष्टि को खारिज करते हुए, उसे हाशिये पर धकेलना शुरू कर दिया था। जो 'क्लैसिकलÓ था, उसे अतीत का उच्छिष्ट बताया जाने लगा। धीरे-धीरे शीतयुद्ध कालीन दैत्याकार दारुणताओं ने सुंदर की संभावना का संहार कर डाला।
कलाकार क्यों नहीं बोलता
आखिर परंपरागत चित्र-शैलियों की ऐसी दुर्गति की वजहें क्या हैं? दरअसल, हकीकत यह है कि हमारे यहां चित्रकला पर बोलने-बतियाने का काम खुद कलाकारों की जमात ने कम ही किया। इसके विपरीत बढ़-चढ़ कर बोलने वाले स्वनियुक्त गैर-कलाकार ही अधिक रहे। उनमें अधिकतर वे लोग थे, जिन्होंने जीवन में कभी ब्रश नहीं उठाया होगा। वास्तव में, वे अपनी भाषा की पूंजी के सहारे जो शब्द-निवेश कर रहे थे, वही कला-समीक्षा का पर्याय बनता रहा था। उनमें कला की शून्य समझ थी। हां, बाद में जो कलाकारों की पीढ़ी आई, उनमें सूज़ा जैसे कुछेक चित्रकार बोलने-लिखने में सक्षम रहे। लेकिन, ऐसे मुखर कलाकार की कला की सारी महानता या उत्कृष्टता सिर्फ उनके बोले हुए में थी- जबकि कैनवस पर वे अपनी पंगु कृतियों के साथ थे।
धुंध में एक रौशनी
देखा जाए तो भारत को अगर अपनी 'आधुनिकताÓ ईजाद करनी थी तो पिछली सदी के पूर्वार्ध में एक खिड़की खुल रही थी। वह पगडंडी थी, जो अपने विकास में विस्तृत मार्ग का रूप ले सकती थी। आजादी के बाद वही एक वृहद संभावना थी। यह था, भारतीय कला-क्षितिज पर अमृता शेरगिल का उदय। जब अमृता शेरगिल आर्इं, वह भारतीय कला में 'कृतिÓ के भीतर के संरचनागत परिवर्तन का आरंभिक काल था। उसमें परंपरा के प्रति वैमनस्य की प्रतीति नहीं, बल्कि पुरानी की उपस्थिति पर कृतज्ञता व्यक्त हो रही थी। तब पश्चिम प्रेरित नए ने यथोचित जगह नहीं घेरी या बनाई थी। एक धुंध थी, रचनात्मक छटपटाहट थी और अनेक अनुत्तरित प्रश्न थे, जिनके उत्तर 'कृतिÓ के रूप में कैनवस पर लिखे और दिए जाने थे।
अपनी पश्चिम की पृष्ठभूमि को लांघ कर आई अमृता शेरगिल संभवत: भारतीय कला की उस कलावधि में प्रकट होने वाली पहली ऐसी और एकमात्र चित्रकार थीं, जो अपनी कला के पक्ष में रंग और शब्द, दोनों के सहारे यथोचित बहस कर और यूरोपीय कला-जगत से छन-छन कर आने वाली प्रवृत्तियों से निर्भीकता के साथ रूबरू हुर्इं। क्योंकि वे वहां के कला आंदोलनों की हलचलों की साक्षी थीं और हकीकतों को खंगाल चुकी थीं। इसलिए उन्होंने पश्चिम से लौट कर 'भारतीय कलाÓ को लेकर उठाए जाते रहे पुराने प्रश्नों के ज्यादा तर्कपूर्ण उत्तर अपनी रचनात्मकता के रूप में दिए। उन्होंने पिकासो की तर्ज पर 'विरूपनÓ या 'विकृतिÓ को आधार नहीं बनाया, बल्कि यह अपनी मेधा से सिद्ध किया कि भारतीय चित्र-दृष्टि का असली मर्म 'देखनेÓ भर में नहीं, बल्कि देख चुकने के बाद उसकी ऐंद्रिकता को सात्विकता के साथ नाथने में भी है।
ऐंद्रीय-आध्यात्मिकता
उनकी देहाकृतियों को विवेचित करने के लिए एक शब्द का उपयोग किया जा सकता है- ऐंद्रीय-आध्यात्मिकता। भारतीय चित्र-शैलियों पर चित्रित या उत्कीर्ण स्त्रीदेह में यही विशिष्टता समाहित है। वह तूलिका से चित्रित या छैनी से तराशी हुई नहीं, बल्कि काव्य-भाषा में आपादमस्तक लथपथ देह है। उसमें स्थूल ऐंद्रिकता नहीं, एक किस्म की 'ऐंद्रीय-आध्यात्मिकताÓ है। संस्कृत में इसे 'चिंतामणिÓ देह कहा गया है, जिसे पाकर भी अप्राप्यता का बोध मिटता नहीं है। क्या सूज़ा की निहायत फूहड़ और भदेस निर्वसनाओं को 'भारतीय कला दृष्टिÓ की अप्रतिम उपलब्धि की तरह अभिनंदनीय बनाया जाना चाहिए?
सवाल है कि क्या हम अपनी कला-परंपरा की खोई हुई पहचान को पुनराविष्कृत करते हुए, तथाकथित ग्लोबल के सच्चे प्रतिरोध का कोई प्रतिमान गढ़ सकते हैं? या कि बस भूमंडलीकृत बाजार के बाजे में फूंक मार-मार कर, अपनी उधारी की तुरही से उनके सुर में सुर मिलाते रहने को 'यह तो होना ही हैÓ की-सी अनिवार्य नियति स्वीकार कर लेंगे। -प्रभु जोशी
लेखक के बारे में
Prabhu Joshi |
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