बुधवार, 1 अप्रैल 2015

दोहरे चरित्र कैसे करेंगे अधिकारों की रक्षा ?


कर्म में संतुष्टि साधु स्वभाव का परिचय है, लेकिन कोई आपके उस संतुष्टि देने वाले छोटे से भाग पर भी अपना अधिकार जमा कर आपको बेदखल कर दे तो यह सहन करने योग्य नहीं है। अपने हिस्से पर अधिकार की लड़ाई और उसे संरक्षित करना इंसानी धर्म है। इसी को श्रीमद् भगवत गीता में कर्म की शिक्षा के रूप में अंकित किया गया है।
कला क्षेत्र का एक बहुत बड़ा तबका विजूअल आर्टिस्ट का है।  जब भी किसी कला आंदोलन की बात सामने आती है तो यह तबका परिदृश्य पर नजर नहीं आता। तंग गलियारों और बंद कमरों में एक दूसरे के कांधे पर बंदूक रखने के लिए एक दूसरे को सहलाता-बहलाता यह तबका कभी सामने के मोर्चे पर डटा हुआ नहीं दिखता। हां इनके अधिकारों के लिए यदि किसी और ने लड़कर विजय के रूप में अधिकार पाए हैं तो अपने हिस्से को पाने के लिए जरूर उग्र व आक्रमक नजर आता है। जिनकी पीठ पीछे आलोचना करता है उन्हीं के आगे-पीछे अपने तुच्छ हितों की खातिर मंडराता दिखता हैै। अपनी कर्महीनता को वो कला की संवेदना के पर्दे में ओढ़कर पेश करने का अच्छा खिलाड़ी है। 
दूसरी और इसी तबके का एक भाग स्वयं को तटस्थ बताने वाले लोगों का भी है। जो 'ना काहू से दोस्ती, ना काहू से बैरÓ को अपना जीवन मंत्र मानकर सही और गलत के प्रति आंख मूंदे बैठे हैं। ऐसी स्थिति भी विकट है। क्योंकि जब उनकों अपने हितों के लिए सही और गलत की लड़ाई लडऩी पड़ी है तब वह भरी महफिल में तन्हा हो जाते हैं। तटस्थ व्यक्ति समाज के हित में गलत के प्रति चुप्पी साधकर बहुत बुरा कार्य करता है। 

विजुअल आर्टिस्ट को चाहिए की अपनी अकर्मण्यता और तटस्थता को छोड़कर अपने और समाज के वास्तविक हितों को समझे, अधिकारों व दायित्वों के प्रति सतग रहे। सत्ता और शक्ति का गुलाम ना बने। इस बात को समझने का प्रयास करें कि कला जगत में बुरे लोगों की सक्रीयता इतना नुक्सान नहीं पहुंचाती जितना नुक्सान अच्छेे लोगों की निष्क्रीयता या तटस्थता से होता है।
मंचीय कलाकारों के समान साहसी बने तो आज विजुअल आर्टिस्ट की खामोशी से सहन करने वाले की जो छवि है, वह टूटेगी। हम जब हमारे हितों, अधिकारों और दायित्वों के प्रति सजग रहेंगे तो किसी में साहस नहीं होगा कि वह कलाकार के अधिकार क्षेत्र पर डाका डाल सके। जब हमारे बीच सहनशीलता और उग्रता का संंतुलन कायम होगा तब ही हम वास्तव में गरिमामय कहलाएंगे। वो सब कुछ जिससे हम चुप्पी और पीछे हट जाने की आदत के चलते वंचित रह जाते हैं,  बिना किसी लाग-लपेट के हमारे साथ होगा। बस हमें हमारे दोहरे चरित्र के खोल से बाहर निकल कर आना पड़ेगा क्योकि दोहरा चरित्र ना तो कभी अपनी वास्तविक पहचान कायम कर पाता है ओर ना ही अपने अधिकारों का संरक्षण ही। 

अपनी लड़ाई खुद को ही लडऩी पड़ती है। कोई अन्य आपकी मदद तब ही कर पाता है जब आप अपने अधिकारों के प्रति सजग हों। गीता के इस चिर ज्ञान को आत्मसात करते हुए जयपुर के रंगकर्मियों ने आन्दोलनकारियोंं का बाना धारण कर लिया है। लेकिन कला व संस्कृति के अन्य प्रबल पक्षों में किसी बात को लेकर कोई हलचल नहीं है। वो पक्ष 'जो बोले वो कुंडी खोलेÓ के डर से सोए हुए हैं या अज्ञानता की बेहोशी में खोए हुए हैं, इस बात को समझना पड़ेगा। 

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