बुधवार, 1 अप्रैल 2015

दस बरस पूरे होने पर

अपनों से कुछ बेपर्दा बातें 
गत दस बरस से हर पखवाड़े पाठकों तक कला जगत की चुनिंदा गतिविधियों की खबर पहुंचाना अपने आप में कितना खास है हमसे बेहतर केवल एक वास्तविक कलाकार ही जान सकता है। कला के नाम पर कलाबाजियां करते रहने वालों के लिए ये महसूस करना उनकी सोच के दायरे से बाहर की बात है। गत दस सालों में मूमल का एक-एक अंक कैसे निकला है ये वही जानते हैं जिन्होंने मूमल को करीब से देखा है। साल में 24 अंक, अब तक लगभग 240 अखबार। लगभग इसलिए क्यों कि कई बार अंक छप भी नहीं पाते। जाहिर है प्रमुख कारण आर्थिक होता है।
बाजारू नहीं
मूमल अपने प्रत्येक पाठक को एक विचार मानता है, बाजार नहीं। यही कारण है कि कला जगत में लगभग सब जानते और देखते भी हैं कि मूमल में बाजारू विज्ञापन नहीं होते। होते भी हैं तो केवल कला गतिविधियों या कला संस्थानों के वे विज्ञापन जिनसे पाठकों को जानकारी या सूचना मिलती हो। इसके अलावा होली, दिवाली या वार्षिक अंक पर शुभकामना के विज्ञापन, वह भी केेवल कलाकारों के। जब पैसे की बहुत तंगी होती है तो हम आगे बढ़कर कला संस्थानों और संगठनों से उनके विज्ञापन या अन्य किसी रूप में धन मांगते हैं। ऐसे अनेक सहयोगी कलाकार हैं जो धन नहीं दे पाते तो अपने काम मूमल को देकर कहते हैं कि इसे बेच कर अपना काम चलाईये, लेकिन इस अखबार को जिंदा रखिए।
ये  हैं ताकत
मूमल का सबसे बड़ा आर्थिक संबंल उसके पाठक हैं। वो वरिष्ठ जो कला की गरिमा बनाए हुए हैं या वे युवा और संर्घषशील कलाकार, जो इसे पैसे देकर खरीदते हैं। वे केवल कुछ पन्नों के पतले से अखबार के लिए 250 रुपए खुशी-खुशी निकालते हैं। जबकि उनका हाथ कथित बड़े कलाकारों की तुलना में काफी तंग होता है। 
वे वजूद मिटाएंगें
दूसरी ओर कुछ कथित बड़े कलाकार मूमल को व्यवसायिकता का तकाजा समझाते हुए ये बतातें हैं कि किस-किस बड़े कलाकार को मूमल फ्री भेजा जाना चाहिए। ये वे कलाकार हैं जो मूमल में छपना भी चाहते हैं और ये उम्मीद करते हैं कि मूमल एपाइन्टमेंट लेकर उनसे मिले और उनकी गतिविधियां पता करके छापे। नहीं तो उन्हें मूमल जैसे छोटे से अखबार का वजूद मिटाने में वक्त नहीं लगेगा।  मूमल से जुड़ा हर कलाकार यह अच्छी तरह से जानता है कि मूमल के संसाधन कितने सीमित हैं। लेकिन बिना किसी पहल के छपने के इच्छुक वे कथित बड़े कलाकार सच्चाई के साथ ना तो जुडऩा चाहते हैं और ना ही जोडऩा। अपने अहम् भाव के चलते कला जगत के पूरे परिदृश्य में उन्हें केवल अपने हित ही सर्वोपरी दिखते हैं।
जो मूमल के संसाधनों के बारे में जानते हैं वे आगे बढ़ कर मूमल को सूचनाएं और जानकारियां उपलब्ध कराते हैं। देखा जाए तो वहीं सच्चे संवेदनशील कलाकार हैं। ऐसे में जो जानकारी देते हैं और बिदांस बोलते हैं, जो गुस्सा जाहिर करते हैं तो उस पर कायम भी रहते हैं। वे मूमल के आवरण प्रष्ठ पर प्रमुखता से छपते हैं। यहां यह बताने की जरूरत नहीं कि ऐसे अनेक वरिष्ठ हैं जो चाहते हैं कि उनके समकक्ष साथियों की पोल मूमल खोले। फिर कुछ देर बार ही वे पोल खुलवाने वाले सज्जन कलाकार उन्हीं साथी कलाकार के साथ अति आत्मीयता के साथ बात करते नजर आते हैं। ऐसे बड़े कलाकारों के लिए क्या कहा और सोचा जाए?
एक और नमूना
एक और उदाहरण प्रस्तुत है, पिछले साल जब दिल्ली की ललित कला अकादमी की कुछ अनियमितताओं में जयपुर का भी नाम आया तो एक महिला कलाकार शिक्षिका ने कहा कि जो जैसा करता है वैसा ही भरता है। ऊपर वाले की लाठी जब चलती है तो आवाज नहीं होती। कई उपाधियां देते हुए उन्होंने राजस्थान ललित कला अकादमी, कला मेला  और आर्ट समिट की गतिविधियों पर काफी कड़ी टिप्पणियां की। इस बारे में वरिष्ठों से चर्चा की गई तो उन्होंने सकारात्मक सोच रखते हुए इसे नजरअंदाज करने की सलाह दी। अब वहीं कला शिक्षिका जब 18वें कला मेले की आयोजन समिति में चुन ली गई तो अकादमी की कार्यप्रणाली पर कोई प्रश्र शेष नहीं रहा। बल्कि मूमल में मेले की विफलता के समाचारों पर आपत्ति करती नजर आईं। कुल मिलाकर हम दस सालों में भी ये नहीं समझ पाए कि आखिर किसके दिखाने के दांत कौन से हैं और खाने के दांत कौन से?
गिनती के कुछ लोग
दस सालों के इस सफर ने यह तो समझा ही दिया है कि 15-20 की सीमित संख्या वाले वो कलाकार जो खुद को  कला जगत के प्रतिनिधी रूप में प्रस्तुत करते हैं। जो स्वयं विशेष कर नहीं पाते, लेकिन उन युवाओं पर अपना सिक्का चलाना चाहते हैं जो दुनिया को बहुत कुछ कला की नई सोच के रूप में दे सकते हैं। मूमल को कला मेले के दौरान, इससे पहले और बाद में ऐसे कई पत्र, सुझाव, सांकेतिक कहानी और चित्र प्राप्त हुए हैं। इनमें युवा कलाकारों ने अपने-अपने क्रिएटिव अंंदाज में कला मेले के समय काल को परिभाषित किया। विसंगतियों को उजागर किया। यह साफ महसूस हो रहा है कि यदि समय रहते इन विसंगतियों के उचित समाधान नहीं निकाले गए तो ये विद्रोह कला के इतिहास में अंकित होगा। 
अब और नहीं 
पिछले कुछ अर्से में संवेदनशील और संर्घषशील कलाकारों ने यह स्पष्ट संकेत दे दिए हैं कि वे प्रदेश में कला जगत के स्वयंभू प्रतिनिधियों को और बर्दाश्त नहीं करेंगे। वे पुरानी कुंठित सोच लिए स्वयं कुछ कर नहीं पाते और नई पीढ़ी को कुछ करने का मौका नहीं देना चाहते। ऐसे मेंं अब गंभीरता से विचार का समय आ गया है कि ऐसे विभिन्न चेहरों वाले गिने-चुने वरिष्ठों के लिए कौन सा स्थान निर्धारित करे? 
ऐसे में अब लग रहा है कि सकारात्मकता की कृत्रिम बातें करते हुए नकारात्मकता की गंदगी को छुपाने की बजाए एक सीमा तक उसे जगजाहिर किया जाए। एक आईने की तरह जो है, जैसा है बताया जाए। जाहिर है इसके बदले में कुछ कठिनाइयां और बढ़ जाएंगी, प्रभावित लोग वजूद खत्म करने की कोशिश भी करेंगे, लेकिन हम यह मानते हुए न केवल बने रहेेंगे बल्कि सुधि पाठकों और सच्चे शुभचिंतकों के साथ आगे भी बढ़ते रहेंगे...
क्योंकि, 
जो लोग चाहते हैं मिटाना मेरा वजूद
उनकों खबर नहीं फना हो चुकी हूं मै...
                                         -मूमल

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