शनिवार, 21 दिसंबर 2013

वी एस गायतोंडे 23.7 करोड़ रुपये में


कला बाजार
संपादकीय
वी एस गायतोंडे  23.7 करोड़ रुपये में
कुछ आलोचक किसी कलाकार की पेंटिंग की गुणवत्ता और उसके भावनात्मक बिंदु के बजाय मूल्य और बाजार के लिहाज से की गई तुलना को बुरा बताते हैं। लेकिन कला संग्रहकर्ता सफलता के मानक के रूप में मूल्य की ही तुलना करते हैं। कलाकारों का दावा होता है वे बाजार से बेअसर हैं लेकिन यह सच नहीं है। हो सकता है किसी वक्त यह सच हो लेकिन लेकिन बड़ा घर, बड़ी कार, विदेशों में अवकाश आदि की आकांक्षा किसे नहीं होती? वी एस गायतोंडे ने बीते गुरुवार की रात ये सारी बातें महसूस की होंगी जब उनकी एक बगैर शीर्षक वाली पेंटिंग 23.7 करोड़ रुपये में नीलाम होकर, सबसे अधिक कीमत पर नीलाम होने वाली भारतीय कलाकृति बन गई।
एस एच रजा के 16.4 करोड़ रुपये 
क्रिस्टीज के भारत में प्रवेश ने एक और मानक तय किया जब तैयब मेहता की पेंटिंग महिषासुर 19.7 करोड़ रुपये में बिकी और उस रात एस एच रजा के 16.4 करोड़ रुपये के रिकॉर्ड को तोडऩे वाली दूसरी पेंटिंग बन गई। इसके अलावा राम कुमार, भूपेन, खखर, गणेश पाइने और मंजीत बावा की कृतियों ने भी अन्य रिकॉर्ड कायम किए। रवींद्रनाथ टैगोर की एक पेंटिंग महज 2.9 करोड़ रुपये में बकी। यहां पर तुलनात्मक सवाल पैदा होता है बंगाल के आधुनिक चित्रकारों को मुंबई के प्रगतिशील चित्रकारों की तुलना में कम कीमत क्यों मिली? इसका जवाब एकदम स्पष्टï है। सूजा, हुसैन, रजा आदि ने कोलकाता और शांति निकेतन के कलाकारों की तुलना में अपनी लोकप्रियता और कुछ हद तक अपनी बदनामी को भी भुनाया। इन कलाकारों को आगे बढ़ाने के क्रम में यूरोपियनों के एक समूह ने भी उन्हें राह दिखाई जो कला जगत में दखल रखते थे और जिनकी प्रमुख मीडिया घरानों में अच्छी पैठ थी।
तुलना करना बुरा नहीं
कला जगत में तुलना करना कभी भी बुरा काम नहीं रहा। आप किसी कलाकार की शैली की तुलना दूसरे से कर सकते हैं। वहीं किसी कलाकार के शुरुआती दौर के काम की तुलना उसके बाद के काम से करके यह देखा जा सकता है कि किस तरह उसका विकास हुआ। वहीं किसी कलाकार की तुलना उन कलाकारों से भी हो सकती है जिनसे वह प्रभावित रहा हो। सतीश गुजराल की तुलना फ्रीडा काहलो से, एफएन सूजा की पाब्लो पिकासे से, एस एच रजा की तुलना मार्क रॉथको से वगैरह...वगैरह।
कुछ हद तक सुधार 
बंगाल के कलाकारों की तुलना में उनका काम का दायरा बहुत व्यापक था। उनकी कला शैली भी पश्चिमी प्रभाव वाली थी और बदलते हुए समाज में उसे अधिक चाव से लिया जा रहा था। व्यापक दस्तावेजीकरण के बावजूद बंगाल की चित्रकला शैली की आलोचना और मुंबई की अधिक अभिव्यक्ति वाली शैली के साथ उसकी गलत तुलना ने उसकी अनदेखी की और बीतते दशकों के साथ धीरे धीरे हाशिए पर पहुंचा दिया। टैगोर के हालिया मूल्यांकन को देखा जाए तो कहा जा सकता है कि अभी भी बंगाल के कलाकारों को कला जगत के मौजूदा सितारों के साथ अवसर देकर कुछ हद तक सुधार किया जा सकता है।
भारतीयों की रुचि अभी भी स्थानीय
ऐसी ही एक और तुलना जिसकी पड़ताल होनी चाहिए वह है चीन का शक्तिशाली बाजार और उसकी अपेक्षा छोटा भारतीय बाजार। हाल के वर्षों में हमने देखा है कि लंदन अथवा न्यूयॉर्क की तुलना में शांघाई अधिक तेजी से मजबूत हुआ है और चीन अब दुनिया का सबसे बड़ा कला बाजार बन चुका है। उसकी तुलना में भारत काफी पीछे है। कला बाजार के पश्चिम से एशिया में स्थानांतरित होने ने कला वीथिकाओं, संग्रहालयों और नीलामी घरों का ध्यान आकर्षित हुआ है जबकि अगर भारत के कला बाजार को संकेत माना जाए तो उसने इन सभी को निराश किया है। चीन के संग्रहकर्ताओं ने जहां पश्चिमी कलाकारों में रुचि दिखाई है वहीं भारतीयों की रुचि अभी भी स्थानीय है। चीन की तुलना में हमारा बाजार भी बहुत छोटा है।

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