मूमल नेटवर्क, जयपुर। प्रदेश के महान साहित्यकार विजयदान देथा का निधन हो गया। वे 88 वर्ष के थे।
राजस्थान की लोक कथाओं और कहावतों के संग्रह एवं पुनर्लेखन के क्षेत्र में विजयदान देथा का योगदान विश्व स्तर पर समादृत है । पद्मश्री और साहित्य अकादमी पुरस्कारों से पुरस्कृत विजयदान देथा का जन्म 1 सितम्बर 1926, राजस्थान के बारूंदा गांव में हुआ था। इनके मित्र प्यार से इन्हें बिज्जी कहते थे। देथा ने 800 से अधिक कहानियाँ लिखी, जिनमें से अनेक का अनुवाद हिन्दी, अंग्रेजी तथा अन्य भाषाओँ में हो चुका है । उनकी कहानियों पर आधारित तीन हिन्दी फिल्में -दुविधा, पहेली और परिणीता बन चुकी हैं और चरनदास चोर सहित अनेक नाटक लिखे और मंचित हो चुके हैं ।
विजयदान देथा के बारे में यह तथ्य भी जानना कम महत्त्वपूर्ण नहीं है कि अधिकांश कहानियाँ मूलत: राजस्थानी में लिखी गयी थीं, सबसे पहले-'बातारी फुलवारीÓ नाम से उनका विशाल कथा ग्रंथ (तेरह खंडों में) प्रकाशित हुआ था । बाद में जब उनकी कहानियों के दो संग्रह हिन्दी में प्रकाशित हुए तो पूरा हिन्दी संसार चौंक पड़ा क्योंकि इस शैली और भाषा में कहानी लिखने की कोई परम्परा तथा पद्धति न केवल हिन्दी में नहीं थी बल्कि किसी भी भारतीय भाषा में नहीं थी। उनकी कहानियाँ पढ़कर विख्यात फिल्मकार मणिकौल इतने अभिभूत हुए कि उन्होंने तत्काल उन्हें लिखा-
''तुम तो छुपे हुए ही ठीक हो। ...तुम्हारी कहानियाँ शहरी जानवरों तक पहुँच गयीं तो वे कुत्तों की तरह उन पर टूट पड़ेंगे। ...गिद्ध हैं नोच खाएँगे। तुम्हारी नम्रता है कि तुमने अपने रत्नों को गाँव की झीनी धूल से ढँक रखा है।ÓÓ हुआ भी यही, अपनी ही एक कहानी के दलित पात्र की तरह- जिसने जब देखा कि उसके द्वारा उपजाये खीरे में बीज की जगह 'कंकड़-पत्थरÓ भरे हैं तो उसने उन्हें घर के एक कोने में फेंक दिया, किन्तु बाद में एक व्यापारी की निगाह उन पर पड़ी तो उसकी आँखें चौंधियाँ गयीं, क्योंकि वे कंकड़-पत्थर नहीं हीरे थे। विजयदान देथा के साथ भी यही हुआ। उनकी कहानियाँ अनूदित होकर जब हिन्दी में आयीं तो हिन्दी संसार की आँखें चौंधियाँ गयीं। स्वयं मणिकौल ने उनकी एक कहानी 'दुविधाÓ पर फिल्म बनाई। विजयदान देथा चारण जाति से थे। उनके पिता सबलदान देथा और दादा जुगतिदान देथा भी राजस्थान के जाने-माने कवियों में से हैं। देथा ने अपने पिता और दो भाइयों को एक पुश्तैनी दुश्मनी में मात्र चार वर्ष की आयु में खो दिया।
कभी अन्य किसी भाषा में नहीं लिखा
अपनी मातृ भाषा राजस्थानी के समादर में 'बिज्जीÓ ने कभी अन्य किसी भाषा में नहीं लिखा, उनका अधिकतर कार्य उनके एक पुत्र कैलाश कबीर द्वारा हिन्दी में अनुवादित किया।
उषा, 1946, कविताएँ
बापु के तीन हत्यारे, 1948, आलोचना
ज्वाला साप्ताहिक में स्तम्भ, 194-1952
साहित्य और समाज, 1960, निबन्ध
अनोखा पेड़, सचित्र बच्चों की कहानियाँ, 1968
फूलवारी, कैलाश कबीर द्वारा हिन्दी अनुवादित, 1992
चौधरायन की चतुराई, लघु कथाएँ, 1996
अन्तराल, 1997, लघु कथाएँ
सपन प्रिया, 1997, लघु कथाएँ
मेरो दर्द ना जाणे कोय, 1997, निबन्ध
अतिरिक्ता, 1997, आलोचना
महामिलन, उपन्यास, 1998
प्रिया मृणाल, लघु कथाएँ, 1998
राजस्थानी[संपादित करें]
बाताँ री फुलवारी, भाग 1-14, 1960-1975, लोक लोरियाँ
प्रेरणा कोमल कोठारी द्वारा सह-सम्पादित, 1953
सोरठा, 1956-1958
परम्परा, इसमें तीन विशेष चीजें सम्पादित हैं - लोक संगीत, गोरा हातजा, जेथवा रा * राजस्थानी लोक गीत, राजस्थान के लोक गीत, छ: भाग, 1958
टिडो राव, राजस्थानी की प्रथम जेब में रखने लायक पुस्तक, 1965
उलझन,1984, उपन्यास
अलेखुन हिटलर, 1984, लघु कथाएँ
रूँख, 1987
कबू रानी, 1989, बच्चों की कहानियाँ
देथा भी निम्नलिखित कार्यों के सम्पादन के लिए भी आकलित किया जाता है[1]
साहित्य अकादमी के लिए गणेशी लाल व्यास का कार्य पूर्ण किया।
राजस्थानी-हिन्दी कहावत कोष।
पुरस्कार और सम्मान
राजस्थानी के लिए 1974 का साहित्य अकादमी पुरस्कार[1]
1992 में भारतीय भाषा परिषद पुरस्कार[1]
1995 का मरुधारा पुरस्कार[1]
2002 का बिहारी पुरस्कार[1]
2006 का साहित्य चूड़ामणि पुरस्कार[2]
2007 में पद्मश्री [3]
मेहरानगढ़ संग्राहलय ट्रस्ट द्वारा 2011 में राव सिंह पुरस्कार
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