.इस बार सामने आई ज्यादातर खबरों से बात प्रमुखता से उभर कर सामने आई कि कला जगत के ज्यादातर प्राणी केंकड़ों सा व्यवहार कर रहे हैं। बात चाहे कलाकारों की करें या कलाकारों के काम को प्रदर्शित करने वाले व्यापारियों की, नवांकुरों को दिशा देने वाले वटवृक्षों की करें या कला शिक्षकों की सभी क्षेत्रों में एक-दूसरे की टांग खींच कर उसे नीचे लाने पर ज्यादा जोर लगाया जा रहा है न कि स्वयं आगे बढऩे पर।
एक मामले में कलाकारों को मारीशस में प्रदर्शन के नाम पर जो खेल खेला गया वह फेयर नहीं था। यहां भी दो लोगों ने कलाकारों के साथ जो किया वह किसी ठगी से कम नहीं रहा। यहां केकड़ों वाली बात तब सामने आई जब दोनों ने एक-दूसरे की टांग खींचते हुए अपनी कारगुजारियां उजागर की। एक अन्य खबर में यह है कि जयपुर में गीत-संगीत के क्षेत्र में सक्रीय एक पुराने संस्थान ने एक अन्य स्कूल के साथ मिलकर पेंटिंग ओर मूर्तिकला के क्षेत्र में कदम बढ़ाया, लेकिन यहां भी फैकल्टीज ने एक-दूसरे की टांग खींची और संस्थान के शुरूआती कदम ही लडख़ड़ा गए। अब शिक्षक अपने-अपने विद्यार्थियों को लेकर अलग-अलग हो गए और हालात यह हो गए कि दही जमा भी नहीं रायता पहले ही फैलने लगा। ऐसी ही केकड़ेपन कि मिसाल जेकेके में पिछलें दिनों हुए दो व्यापारिक प्रदर्शनियों में सामने आई नतीजा यह रहा कि एक में मात्र 20 से 22 प्रतिशत सेल में व्यापार सिमट गया और दूसरी में उतना भी नहीं रहा। विवाद खड़े हो रहे हैं वह अलग।
यह तो अभी ताजा उदाहरण हैं, अगर पुराने और गड़े मुर्दे उखाड़े जाएं तो शायद यहां उल्लेख के लिए स्थान काफी कम लगने लगे। पुराने केंकड़ों की कारगुजारियां आज भी पहले की तरह जारी हैं, इसके लिए ज्यादा कुछ लिखने की आवश्यकता नहीं है, बहुत कुछ आपके जहन में खुद ही आ रहा होगा। एक से बढ़कर एक केंकड़े आपकी नजरों के सामने घूम रहे होंगे।
कुल मिलाकर हमारे कला जगत को तो ऐसी केंकड़ा प्रवृति से बचना चाहिए। देखिए, जब बड़े-बड़े राजनीतिक दलों ने केंकड़ापन छोड़कर 'नूरा-कुश्तीÓ की शैली अपना ली है। करामाती केजरीवाल की बात सही माने तो इसी शैली से वे देश पर बारी-बारी से राज कर रहे हैं। ऐसे में क्या हम एक-दूसरे की टांग न खींच कर अपना छोटा से कला संसार को नहीं चलने दे सकते?
-संपादक