सोमवार, 19 अप्रैल 2010

अब्दुला दीवाना


फ्रॉम नॉनसेंस डेस्क

पिछले दिनों पाठकों से 'मूमल' का गेटअप सुधारने के लिए चाहे गए सुझावों में आपने जो सक्रीयता दिखाई, उसी का नतीजा है कि आपके इस सेन की डेक्स पर नॉनसेंस सरीखा कॉलम लिखने का काम फिर से आ पड़ा। अब कला संस्कृति जैसे गंभीर विषय के इस प्रकाशन में आपको यह भी रुचता है, तो यह आपकी समस्या है।

खैर.....अभी तो 'मूमल' के प्रवेश की धूमधाम में अपन अब्दुला से दीवाने हो रहे हैं। क्यों नहीं हो सकते भई? जब सानिया की सादी में सारा देश अब्दुल्ला हो सकता है, तो हम चीज ही क्या हैं? अब ये बात तो आप पर भी साफ हो गई होगी कि तलाक पाना भी शादी का सुख हंासिल करने से ज्यादा अहम हो सकता है। नहीं मानों तो आयशा आपा से पूछ लो। कुल पांच सौ रुपए की मेहर के पीछे हिन्दुस्तान पाकिस्तान एक कर दिया। भई हम तो पांच सौ ही जानते हैं, अब आपने पन्द्रह करोड़ जाना है तो यह फिर आपकी समस्या है।

अब समस्या तो ये भी है कि ये जयपुर के जलमहल की समस्या क्या है? किसी तूती सी आवाज ने मुद्दा उठाया और अखबारों ने उसे ताड़ सा बना कर एम्पलीफाईड कर दिया। विरासत बचाने के शोर से उठा ध्वनि प्रदुषण कम करने के लिए प्रभावित पक्ष ने अखबारों में विज्ञापनों की आहुति डाली तो कुछ दिन शोर कम हुआ। अब अखबार में विज्ञापन तो इंसानी पेट जैसा है, रोज फुल भरो पर अगले दिन फिर ब्रेकफास्ट, लंच, डिनर सभी चाहिए, सो जलमहल की खबर तो आपको फिर-फिर पढऩी ही है। लेकिन, अगला प्रभावित भी तो इस बिजनेस में पूरी तैयारी से उतरा है। अब की बार उसने व्यापारियों के शिष्ट मंडल को जलमहल का विकास दिखाने के लिए न्यौता, न्यौते हुओं ने वहां जाकर विकास का जायका लिया और सराहा। अब हाथी के पांव में सबका पांव, सो अभी व्यापारिक अखबारगन को विज्ञापन नहीं देने पड़ रहे।

उधर जयपुर के आमेर में हाथी के पांव विदेशी पावणों के लिए समस्या होते जा रहे हैं। अब इनके लिए तो हाथी पर बैठे बिना आमेर तो क्या, जयपुर ट्यूर भी सार्थक नहीं माना जा सकता। ले-देकर आफत होती है, ट्यूर आयोजक और गाईड की। कहते हैं 'सेनजी, आमेर का हाल तो आपके नॉनसेंस से भी ज्यादा खराब है। हाथी, वक्त और फेरे तो गिनती के और सवार अनगिनत। अब हम जानें या ना जानें पर परदेसी पावणें बेहतर जानते है कि जिन्हें जो करनी-करानी हो जल्दी कर लो, क्यों कि ना, अब हाथियों के पांव भारी नहीं हो रहे। कुल मिलाकर आमेर में हाथी की सवारी का वक्त बुरा आ गया है।

जबकि अपने नाम के पहले फेवीकोल के जोड़ सा कुमारी लगाने वाली शैलजा बाईसा का कहना है कि 'पर्यटन व्यवसाय का बुरा वक्त अब गुजरा है।' ट्रेवल बाजार में आई कुमारी जी को कोई यह बताने वाला नहीं मिला कि वास्तव में यहां हाल काफी गया गुजरा है। उन्हें इस बात का तब भी अंदाजा नहीं लगा, जब हमारी काक सा ने उन्हें साफ बताया कि रूरल ट्यूरिस्म के लिए अभी हम गांवों की पहचान ही कर रहे हैं। प्रदेश की शाही ट्रेनों के गए गुजरे हाल की बात भी यहां गटक ली गई। देश में ट्यूरिस्ट इंडस्ट्री की ग्रोथ के आंकड़ों में गुम हुई प्रदेश के पर्यटन की समस्या तो यहां के ऑपरेटर्स की है, मिनिस्टर्स की तो नहीं। अब नॉनसेंसी चलेगी, तो कहने-सुनने और समझने की बातां भी चलेगी ही। अब सारी तो एक साथ हो भी नी सके, सो अभी फिलहाल यहीं इति,

........टेक केयर फॉर ट्यूरिस्म,

बाय...... -सेन

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