गुरुवार, 12 जून 2014

केशव मलिक का निधन...एक खामोश अवसान

कला समीक्षक केशव मलिक का निधन


मूमल नेटवर्क, नई दिल्ली। वरिष्ठ कला समीक्षक, संपादक व कवि पद्मश्री केशव मलिक अब हमारे बीच नहीं रहे। उन्होंने 10 जून, 2014 को देर रात दिल्ली में अंतिम सांस ली, वे 90 वर्ष के थे।रात को उन्हें दिल का दौरा पडऩे के बाद उनके परिजन उन्हें गंगाराम अस्पताल में ले गए, जहां उन्हें मृत घोषित कर दिया गया। 11 जून की शाम लोधी रोड स्थित श्मशान घाट में उनका अंतिम संस्कार हुआ।
अविभाजित भारत के पंजाब प्रांत में 5 नवंबर 1924 को जन्में केशव मलिक की प्रारंभिक शिक्षा दिल्ली और कलकत्ता में हुई। अमर सिंह कॉलेज श्रीनगर, कश्मीर से 1945 में स्नातक की पढ़ाई पूरी करने के बाद 1947-48 में उन्हें जवाहर नेहरू के निजी सचिव के तौर पर काम करने का अवसर मिला। बाद के वर्षों में उच्च शिक्षा के लिए 1950-58 तक लगातार यूरोप और अमरीका की यात्राएं की। भारत लौटने के बाद साल 1960 से लगातार कलासमीक्षक के तौर पर अखबारों एवं पत्र-पत्रिकाओं में नियमित लेखन व संपादन से जुड़े रहे।
एक खामोश अवसान
केशव मलिक नहीं रहे यह सुन कर झटका लगा। हालांकि पिछले काफी समय से वे अस्वस्थ चल रहे थे फिर भी जब कोई उन्हें प्रदर्शनी उद्घाटन के लिये बुलाता था, वे आ जाते थे। हर कला आयोजन में उनकी उपस्थिति चाहने वालों से लेकर अपने केटेलॉग में उनके विचार की दो लाइनें शामिल कराने को महीनों उनकी खुशामद करने वालों की भीड़ में इस व्यक्तित्व का एक खामोश अवसान चौकाने वाला रहा।
इसमें कोई शक नहीं कि उनके जैसे कला आलोचक कम ही होते हैं। वे एक कवि भी थे, यह बात तो लगभग सभी जानते हैं परन्तु वे चित्रकार भी थे, यह बात कम ही लोगों को पता होगी। पत्रकारों के लिए उनसे बातचीत करना हमेशा सुखद रहता था। चाहे वह प्रदर्शनी में हो या उनके घर पर। उनसे कला की दुनिया और कला आलोचना की स्थिति को लेकर उनके पास एक लम्बा अनुभव था। वे कला आलोचना की स्थिति को लेकर बहुत खुश नहीं थे, क्योंकि समाचार पत्रों ने अपने यहां कला समीक्षा के लिये जगह खत्म कर दी। एक आलोचक के रूप में कैसे किसी कृति को देखा जाए इसको लेकर 'मूमल' ने एक स्तम्भ भी आरंभ किया। उस समय उन्होंने एक बात कही थी जो अब भी याद है। उन्होंने कहा था कि कला पर लिखने के लिये सिर्फ  कला को देखना ही काफी नहीं है बल्कि उसे जीना भी जरूरी है। उनकी याद हमेशा बनी रहेगी।

केशव मलिक कहते थे कि कलाकार को संवेदनशील होना चाहिए। कला को संवेदना से अलग नहीं किया जा सकता कलाकार की आत्मशुद्धी एक अनिवार्य प्रक्रिया है। कला आपको अध्यात्म की ओर ले जाती है। अत: कलाकार को अपनी संवेदनाओं को आध्यात्म की ओर ले जाना चाहिए। इससे मनुष्य जन्म की सार्थकता प्राप्त होगी। हर समय नया या ओरीजिनल निर्माण करना, या करने की सोचना यह मात्र एक भ्रम होता है। अत: कार्य एवं प्रक्रिया पर ही कलाकार ने ध्यान देना चाहिए। इस प्रक्रिया को आत्मशुद्धि की प्रक्रिया बनाना चाहिए। अध्यात्म के सिवाय कला एक कारीगरी हो सकती है। उससे कलाकार कारीगर बन सकता है कलाकार नहीं। 

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