तोबे एकला चोलो रे ........
कवि रवीन्द्रनाथ टैगोर, एक व्यक्ति का नहीं एक युग और एक संस्था का नाम है। कविगुरु का ये गीत केवल एक गीत ही नहीं बल्कि जीवन दर्शन है। गाँधी जी इसी दर्शन के सहारे साम्प्रदायिकता के खिलाफ अकेले खड़े हो गए थे। इस गीत में सार्थक आत्मविश्वास से भरे जीवन का दर्शन होता है। ...और इस जीवन दर्शन से प्रेरणा प्राप्त होती है...। एकला चलो रे ...अंतत: कामयाबी और मानसिक संतुष्टि का दूसरा नाम है।
इसका अनुपालन हमें हर स्थिति में करना चाहिए। हमें हमेशा सबकेसाथ की अपेक्षा नहीं करनी चाहिए। हम न तो सभी को प्रसन्न रख पाएंगे और न ही सभी को अपने साथ चलने के लिए प्रेरित कर पाएंगे। इस आस में हम आगे बढऩे के बजाए रुके रहें तो यह जीवन की सार्थकता की आहुति देने के समान होगा। यह हमारी मानसिक निर्बलता का परिचायक ही होगा।
इस गीत का यह अर्थ बिल्कुल नहीं है कि हम सबका विरोध करें। न ही यह हमें प्रेरित करता है कि हम सबके विपरीत चलें। इसका अर्थ तो सिफऱ् यह है कि हम अपनी अंतरात्मा की आवाज़ का अनुपालन करें - चाहे इसमें हमारा कोई साथ दे या ना दे। मैंने अक्सर महसूस किया है कि लोग हालात में सुधार तो चाहते हैं पर इसके लिए कोई साथ नहीं देता। तो क्या हाथ पर हाथ धरे बैठे रहना उचित है? इससे तो अच्छा है कि हम अपने निर्धारित मार्ग पर अकेले चलते रहें। इतिहास गवाह है कि ऐसे लोग ही मानवता के पथ-प्रदर्शक होते हैं जो एकला चलने में विश्वास रखते हैं।
आज एक लक्ष्य को लेकर अकेले चलते व्यक्ति को भले ही कई गुटों का साथ न मिले, भले ही उसका अनादर हो, भले ही भ्रटाचार में लिप्त लोग उसे महत्वहीन बता कर अपना बचाव करने में सफल होते हों, भले ही उसके विचारों और लेखन को गढ़ी हुई कहानियां बता कर बचने का प्रयत्न हो, भले ही अकेले चलते व्यक्ति को हंसी-मजाक का पात्र बनाकर लोग अपने चरित्र पर पर्दा डालने का जतन करते रहें, लेकिन क्या ऐसा लम्बे समय तक चल पाएगा? एक दिन समय भी बदलेगा और समाज भी.... एक दिन कोई अकेली युवा कूंची सब पुराने और कृत्रिम रंग मिटा कर कला जगत के नए कैनवास पर सच्चे रंग बिखेर देगी...और तब चल पड़ेंगे कोटि पग उसी ओर...।
एकला चलो रे... (मूल बांग्ला गीत)
- रवीन्द्रनाथ ठाकुर
यदि तोर डाक शुने केऊ न आसे
तबे एकला चलो रे।
तबे एकला चलो, एकला चलो, एकला चलो रे!
यदि केऊ कथा ना कोय, ओरे, ओरे, ओ अभागा,
यदि सबाई थाके मुख फिराय, सबाई करे भय-
तबे परान खुले
ओ, तुई मुख फुटे तोर मनेर कथा एकला बोलो रे!
यदि सबाई फिरे जाय, ओरे, ओरे, ओ अभागा,
यदि गहन पथे जाबार काले केऊ फिरे न पाय-
तबे पथेर काँटा
ओ, तुई रक्तमाला चरन तले एकला दोलो रे!
यदि आलो ना घरे, ओरे, ओरे, ओ अभागा-
यदि झोड़ बादले आधार राते दुयार देय धरे-
तबे वज्रानले
आपुन बुकेर पांजर जालिये निये एकला जलो रे!
एकला चलो रे.....(हिंदी अनुवाद)
तेरी आवाज़ पे कोई ना आये तो फिर चल अकेला रे
फिर चल अकेला, चल अकेला, चल अकेला रे
यदि कोई भी ना बोले ओरे ओ रे ओ अभागे
यदि सभी मुख मोड़ रहे... सब डरा करें
तब प्राण प्रण से
मन की बात बोल अकेला रे
तेरी आवाज़ पे कोई ना आये तो ओ रे ओ अभागे
गहन पथ पर चलते हुए सब लौटते जाएं
तब पथ के कांटे
लहू लोहित पद दलित कर चल अकेला रे
यदि दिया ना जले ओरे ओ रे ओ अभागे
यदि बदरी आंधी रात में सब द्वार बंद करें
तब शिखा वज्र से
ओ तू हृदय पंजर जला और जल अकेला रे
तेरी आवाज़ पे कोई ना आये तो फिर चल अकेला रे
फिर चल अकेला, चल अकेला, चल अकेला रे...
इसका अनुपालन हमें हर स्थिति में करना चाहिए। हमें हमेशा सबकेसाथ की अपेक्षा नहीं करनी चाहिए। हम न तो सभी को प्रसन्न रख पाएंगे और न ही सभी को अपने साथ चलने के लिए प्रेरित कर पाएंगे। इस आस में हम आगे बढऩे के बजाए रुके रहें तो यह जीवन की सार्थकता की आहुति देने के समान होगा। यह हमारी मानसिक निर्बलता का परिचायक ही होगा।
इस गीत का यह अर्थ बिल्कुल नहीं है कि हम सबका विरोध करें। न ही यह हमें प्रेरित करता है कि हम सबके विपरीत चलें। इसका अर्थ तो सिफऱ् यह है कि हम अपनी अंतरात्मा की आवाज़ का अनुपालन करें - चाहे इसमें हमारा कोई साथ दे या ना दे। मैंने अक्सर महसूस किया है कि लोग हालात में सुधार तो चाहते हैं पर इसके लिए कोई साथ नहीं देता। तो क्या हाथ पर हाथ धरे बैठे रहना उचित है? इससे तो अच्छा है कि हम अपने निर्धारित मार्ग पर अकेले चलते रहें। इतिहास गवाह है कि ऐसे लोग ही मानवता के पथ-प्रदर्शक होते हैं जो एकला चलने में विश्वास रखते हैं।
आज एक लक्ष्य को लेकर अकेले चलते व्यक्ति को भले ही कई गुटों का साथ न मिले, भले ही उसका अनादर हो, भले ही भ्रटाचार में लिप्त लोग उसे महत्वहीन बता कर अपना बचाव करने में सफल होते हों, भले ही उसके विचारों और लेखन को गढ़ी हुई कहानियां बता कर बचने का प्रयत्न हो, भले ही अकेले चलते व्यक्ति को हंसी-मजाक का पात्र बनाकर लोग अपने चरित्र पर पर्दा डालने का जतन करते रहें, लेकिन क्या ऐसा लम्बे समय तक चल पाएगा? एक दिन समय भी बदलेगा और समाज भी.... एक दिन कोई अकेली युवा कूंची सब पुराने और कृत्रिम रंग मिटा कर कला जगत के नए कैनवास पर सच्चे रंग बिखेर देगी...और तब चल पड़ेंगे कोटि पग उसी ओर...।
एकला चलो रे... (मूल बांग्ला गीत)
- रवीन्द्रनाथ ठाकुर
यदि तोर डाक शुने केऊ न आसे
तबे एकला चलो रे।
तबे एकला चलो, एकला चलो, एकला चलो रे!
यदि केऊ कथा ना कोय, ओरे, ओरे, ओ अभागा,
यदि सबाई थाके मुख फिराय, सबाई करे भय-
तबे परान खुले
ओ, तुई मुख फुटे तोर मनेर कथा एकला बोलो रे!
यदि सबाई फिरे जाय, ओरे, ओरे, ओ अभागा,
यदि गहन पथे जाबार काले केऊ फिरे न पाय-
तबे पथेर काँटा
ओ, तुई रक्तमाला चरन तले एकला दोलो रे!
यदि आलो ना घरे, ओरे, ओरे, ओ अभागा-
यदि झोड़ बादले आधार राते दुयार देय धरे-
तबे वज्रानले
आपुन बुकेर पांजर जालिये निये एकला जलो रे!
एकला चलो रे.....(हिंदी अनुवाद)
तेरी आवाज़ पे कोई ना आये तो फिर चल अकेला रे
फिर चल अकेला, चल अकेला, चल अकेला रे
यदि कोई भी ना बोले ओरे ओ रे ओ अभागे
यदि सभी मुख मोड़ रहे... सब डरा करें
तब प्राण प्रण से
मन की बात बोल अकेला रे
तेरी आवाज़ पे कोई ना आये तो ओ रे ओ अभागे
गहन पथ पर चलते हुए सब लौटते जाएं
तब पथ के कांटे
लहू लोहित पद दलित कर चल अकेला रे
यदि दिया ना जले ओरे ओ रे ओ अभागे
यदि बदरी आंधी रात में सब द्वार बंद करें
तब शिखा वज्र से
ओ तू हृदय पंजर जला और जल अकेला रे
तेरी आवाज़ पे कोई ना आये तो फिर चल अकेला रे
फिर चल अकेला, चल अकेला, चल अकेला रे...
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