संपादकीय
नितांत जरूरी है निरंतरता
कला जगत में स्तरीय आयोजनों को अभाव होता जा रहा है। जो आयोजन होते भी हैं उनका अंतराल अधिक है। छोटे कस्बो और शहरों की बात तो छोडि़ए राजधानी तक कला क्षेत्र के गिने चुने आयोजनों तक सिमटे हैं। जयपुर को ही लें तो कुछ समय पहले तक कला गतिविधियां पहले केवल रवीन्द मंच और उसके बाद जवाहर कला केंद्र तक केंद्रित हो कर रही। दो साल पहले जयपुर आर्ट फेस्टिवल के रूप में एक प्रयास किया गया साल दर साल उसमें परिपक्वता आ जाएगी यह उम्मीद छोड़ी नहीं जा सकती। अब पिछले साल से जयपुर आर्ट समिट ने ऐसे कला आयोजन के स्तर और अर्थ दोनों को बढ़ाया है। अब इस साल वह 14 से 18 नवम्बर तक होगा। उममीद की जानी चाहिए कि अब के बरस वह और निखरेगा।
किसी भी काल, देश व समाज की संवेदनशीलता को जीवित रखने के लिए कला गतिविधियों का निरंतर होते रहना बहुत आवश्यक है। मनुष्य के स्वभाव में यह शामिल है कि वह निरंतर जिस माहौल में रहता है, सुनता, देखता और समझता है उसे ही अपने जीवन में ग्रहण करता है। कला का स्पंदन मनुष्य के कोमल भावों में प्राण फूंकने का काम करता है। उसके भीतर की तेजाब सी हिंसा और विकृत भावनाओं का नाश करता है।
इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि आए दिन कला के नाम पर हमारे आगे कुछ ऐसा परोस दिया जाता है जिसे कला की क्षेणी में गिनना ही कला का अपमान करना कहा जा सकता है, लेकिन इस कभी-कभार के वाकये के इतर हमें अक्सर ग्रहण करने योग्य कुछ अच्छा भी मिल जाता है जिसे कला के रूप में देखा और समझा जा सकता है।
वैसे भी कला में मतभेद हमेशा से वक्त मांग रही है जो कभी मिट नहीं सकती। हर व्यक्ति के देखने, सोचने और समझने का दृष्टिकोण अलग-अलग होता है। एक कृति जो उसके रचियता के लिए कोई एक भाव रखती है वहीं दर्शक में कोई अलग उत्पन्न करती है। और तो और उसी कृति का भाव हर देखने वाले की दृष्टि और समझ के अनुसार अलग-अलग हो जाता है। यह भी कह सकते हैं कि देखने वाले के मन की भावनाएं और दृष्टि का कोण केवल उस व्यक्ति के लिए कृति के महत्व को भिन्न कर देता है।
काल, खंड और समय के अनुरूप भी किसी कृति का गठन और सौन्दर्य प्रभावित होता रहता है 'दादावाद' इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। कला गठन की परम्पराओं को तोड़ते हुए कृति को अपनी समझ और उपलब्ध गैर पारंपरिक साधनों से निर्मित किया जाने लगा। कृति के विकृत रूपाकारों में भी सौदर्य खोजा गया और उसे कला की संज्ञा दी गई।
यहां हम समसामयिक कला की चर्चा कर सकते हैं। किसी कलाकार द्वारा सृजित कृति का सौन्दर्य और अर्थ प्रत्येक दर्शक के नजरिए और समझ के अनुसार बदल जाता है। कई बार तो कलाकार स्वयं अपने सृजन की व्याख्या सुन कर अचंभित हो जाता है।
कुल मिला कर यहां यह स्पष्ट करना चाहते हैं कि कला मनुष्य को प्रभावित करती है। उसकी सोई हुई संवेदना को जगाने का काम करती है। इसी लिए कला की निरंतरता बने रहना अति आवश्यक है, चाहे वह सम्पूर्ण कला पर कसौटी पर खरी उतरे या नहीं। संवेदनाओं की दुनियां में एक छोटा सा कलात्मक प्रयास भी बड़ा महत्व रखता है।
नितांत जरूरी है निरंतरता
कला जगत में स्तरीय आयोजनों को अभाव होता जा रहा है। जो आयोजन होते भी हैं उनका अंतराल अधिक है। छोटे कस्बो और शहरों की बात तो छोडि़ए राजधानी तक कला क्षेत्र के गिने चुने आयोजनों तक सिमटे हैं। जयपुर को ही लें तो कुछ समय पहले तक कला गतिविधियां पहले केवल रवीन्द मंच और उसके बाद जवाहर कला केंद्र तक केंद्रित हो कर रही। दो साल पहले जयपुर आर्ट फेस्टिवल के रूप में एक प्रयास किया गया साल दर साल उसमें परिपक्वता आ जाएगी यह उम्मीद छोड़ी नहीं जा सकती। अब पिछले साल से जयपुर आर्ट समिट ने ऐसे कला आयोजन के स्तर और अर्थ दोनों को बढ़ाया है। अब इस साल वह 14 से 18 नवम्बर तक होगा। उममीद की जानी चाहिए कि अब के बरस वह और निखरेगा।
किसी भी काल, देश व समाज की संवेदनशीलता को जीवित रखने के लिए कला गतिविधियों का निरंतर होते रहना बहुत आवश्यक है। मनुष्य के स्वभाव में यह शामिल है कि वह निरंतर जिस माहौल में रहता है, सुनता, देखता और समझता है उसे ही अपने जीवन में ग्रहण करता है। कला का स्पंदन मनुष्य के कोमल भावों में प्राण फूंकने का काम करता है। उसके भीतर की तेजाब सी हिंसा और विकृत भावनाओं का नाश करता है।
इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि आए दिन कला के नाम पर हमारे आगे कुछ ऐसा परोस दिया जाता है जिसे कला की क्षेणी में गिनना ही कला का अपमान करना कहा जा सकता है, लेकिन इस कभी-कभार के वाकये के इतर हमें अक्सर ग्रहण करने योग्य कुछ अच्छा भी मिल जाता है जिसे कला के रूप में देखा और समझा जा सकता है।
वैसे भी कला में मतभेद हमेशा से वक्त मांग रही है जो कभी मिट नहीं सकती। हर व्यक्ति के देखने, सोचने और समझने का दृष्टिकोण अलग-अलग होता है। एक कृति जो उसके रचियता के लिए कोई एक भाव रखती है वहीं दर्शक में कोई अलग उत्पन्न करती है। और तो और उसी कृति का भाव हर देखने वाले की दृष्टि और समझ के अनुसार अलग-अलग हो जाता है। यह भी कह सकते हैं कि देखने वाले के मन की भावनाएं और दृष्टि का कोण केवल उस व्यक्ति के लिए कृति के महत्व को भिन्न कर देता है।
काल, खंड और समय के अनुरूप भी किसी कृति का गठन और सौन्दर्य प्रभावित होता रहता है 'दादावाद' इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। कला गठन की परम्पराओं को तोड़ते हुए कृति को अपनी समझ और उपलब्ध गैर पारंपरिक साधनों से निर्मित किया जाने लगा। कृति के विकृत रूपाकारों में भी सौदर्य खोजा गया और उसे कला की संज्ञा दी गई।
यहां हम समसामयिक कला की चर्चा कर सकते हैं। किसी कलाकार द्वारा सृजित कृति का सौन्दर्य और अर्थ प्रत्येक दर्शक के नजरिए और समझ के अनुसार बदल जाता है। कई बार तो कलाकार स्वयं अपने सृजन की व्याख्या सुन कर अचंभित हो जाता है।
कुल मिला कर यहां यह स्पष्ट करना चाहते हैं कि कला मनुष्य को प्रभावित करती है। उसकी सोई हुई संवेदना को जगाने का काम करती है। इसी लिए कला की निरंतरता बने रहना अति आवश्यक है, चाहे वह सम्पूर्ण कला पर कसौटी पर खरी उतरे या नहीं। संवेदनाओं की दुनियां में एक छोटा सा कलात्मक प्रयास भी बड़ा महत्व रखता है।
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