चार साल की मंदी के बादल छंटे
कला व्यापारियों की नजर से देखा जाए तो 'ग्रेट वर्क' की बाजार में कमी है, जो कुछ निजी संग्राहकों और म्यूजियम से ही खरीदे जा सकते हैं। इन ग्रेट वर्क की कीमतों में आए उछाल को देखते हुए निवेश की दृष्टि से कई नए कला खरीददारों की संख्या बढ़ी है, जो कला बाजार के लिए अच्छे संकेत हैं।वर्ष 2014 भारतीय कला बाजार के लिए बहुत बेहतर होने की उम्मीद लेकर आया है। 2013 के अन्त में क्रिस्टीज द्वारा की गई गोयतोंडे की पेंटिंग की ऊंची कीमत की खरीद ने कला बाजार के 2014 के दरवाजे पर आशा और विश्वास भरी दस्तक दी है। वर्ष की शुराआत में ही भारतीय कला नीलामी घर सैफरोन द्वारा किए गए बिजनेस ने इसे पुख्ता बनाया है। कलाकारों, कला व्यापारियों व कला संग्राहकों के लिए यह वर्ष बहुत अच्छा बीतेगा, यह उम्मीद की जा सकती है। इस उम्मीद को लेकर कई नीलामी घरों और कला दीर्घाओं ने खरीद-फरोख्त व नीलामी की योजनाएं तक बना डाली हैं।
फरवरी मध्य की बात करें तो सैफरोन आर्ट ने 30.32 करोड़ रुपए मूल्य की कृतियां बेची है। उसमें 5.75 करोड़ रुपए तो केवल एस.एन. रजा की अकेली उस कृति को मिले थे जो उन्होने 1951 में पेपर पर बनाई थी। किसी पेपर पर बनाई गई भारतीय कलाकार की यह सबसे महंगी कृति के रूप में बिकी।
सैफरोन के फाउण्डर दिनेश वजीरानी के अनुसार रजा की इस कृति को खरीदने के लिए ऑनलाईन और फोन पर लगभग 200 कला संग्रहकों ने सम्पर्क किया था। इस खरीद ने कला बाजार में तेजी के वापस लौटने को स्पष्ट किया है। इसी सोच को सामने रखते हुए सैफरोन ने लगभग चार प्रत्यक्ष बिक्री आयोजनो और लगभग 12 ऑनलाईन बिक्री आयोजनो की योजना बना ली है। जो इसी वर्ष में क्रमवार आयोजित किए जाएंगे।
वैसे कला व्यापारियों की नजर से देखा जाए तो 'ग्रेट वर्क' की बाजार में कमी है, जो कुछ निजी संग्राहकों और म्यूजियम से ही खरीदे जा सकते हैं। इन ग्रेट वर्क की कीमतों में आए उछाल को देखते हुए निवेश की दृष्टि से कई नए कला खरीददारों की संख्या बढ़ी है, जो कला बाजार के लिए अच्छे संकेत हैं।
निवेशकों की बढ़त को देखते हुए कला व्यापारी रीयल एस्टेट की तर्ज पर एंटिक वस्तुओं जैसे पुरानी कारों और चीनी मिट्टी व टेराकोटा के पुराने बर्तनों के साथ अन्य वस्तुओं को बेचने का भी प्लान बना रहे हैं।
फरवरी की बिक्री
सैफरोन ने 5.37 करोड़ रुपए की 70 समकालीन कृतियां बेची गई। इसमें प्रमुख रूप से जी.रवीन्द्र रेड्डी, ठकुराल व टागरा, शिब्बू नेटेसन, जितिश कालट व अंजू डोडिया की कृतियां शामिल हैं। प्रति कृति की बात करें तो 24 लाख से 96 लाख की कृति बिकी।
30.32 करोड़ रुपए की 68 मॉडर्न कलाकृतियां बिकीं। जो इनकी लगाई गई अनुमानित कीमत 23.14 करोड़ रुपए से काफी ज्यादा प्राप्त हुई। इसमें पांच श्रेष्ठ कार्य एस.एच. रजा, एफ.एन. सूजा, राम कुमार और कृष्ण खन्ना के थे। इसमें प्रति कृति कीमत की बात करें तो 1.02 से लेकर 5.75 करोड़ रुपए की कीमत प्राप्त हुई।
सैफरोन के साथ अन्य कला व्यापारियों का यही मानना है कि चार साल की लगातार रही मंदी ने उन्हें तोड़ कर रख दिया था लेकिन वर्ष की अच्छी शुरुआत ने फिर जान फंूकने का काम किया है।
मुबई का एक और नीलामी घर भी मार्च में 91 कलाकृतियां नीलाम करने की तैयारी कर रहा है, उसमें तैयब मेहता, एम.एफ. हुसैन और अमृता शेरगिल जैसे कलाकारों की कृतियां शामिल होंगी।
-गायत्री
सम्पादकीय...
कचरे से अटता कला बाजार...
कला का मूल रहा है, साधना। जैसे सोना भट्टी में तप-तप कर निखरता है, ठीक वैसे ही कला में निखार भी निरन्तर अभ्यास और साधना से ही संभव हो पाता है। कला के शिखर पर जिन बड़े कलाकारों का नाम गुंजित हो रहा है, वो इसी कला-साधना का ही प्रतिफल हैं।
कहते हैं, शिखर हमेशा खाली रहता है। लेकिन यहां तो शिखर पर आज भी वही नाम हैं, जो कल थे। आज के किसी कलाकार का यह हौसला क्यों नहीं हो पाया कि शिखर पर अपना भी नाम दर्ज करवा पाएं। कारणों पर नजर डालें तो सबसे बड़ा कारण कला को साधना के स्थान पर बाजार बनाने की कलाकारों की प्रवृति का ही नजर आता है।
अपने विद्यार्थी काल से ही सीखने के हिसाब से बनाई गई कृतियों को बाजार में बेचने की प्रवृति बढ़ी है। अपने कला कर्म की कमियों को साधने के बजाय नजरअन्दाज कर हवाई कीमतों के साथ बाजार में प्रस्तुत करना ही एकमात्र लक्ष्य रह गया है। 'बस किसी भी तरहा कृति बिक जाएÓ यह जो कलाकारों का मानस बन रहा है उसन कला के स्तर में भारी गिरावट पैदा की है।
अपनी बनाई कई कलाकृतियों को स्वयं नकारने के बाद किसी अच्छी व परिष्कृत कृति को लोगों के सामने लाने की भावना रहती थी। कलाकारों की यह भावना अब लगभग लोप हो गई है। कला बाजार में बिग ब्रश से लेकर मंझोले कलाकार और विद्यार्थी वर्ग की बनाई कलाकृतियों की भरमार ने मांग व पूर्ति के के संतुलन को बिगाड़ दिया है। मांग के हिसाब से पूर्ति की अधिकता ने जहां एक ओर कला खरीददार के आगे कई विकल्प खड़े किए हैं वहीं भ्रम की स्थिति भी पैदा की है।
एक दौर, जिसमें कला निवेश की स्थिति आई थी, अब असमंजस के कगार पर खड़ा है। कृतियों के ढेर से अटे बाजार में से निवेश की दृष्टि से किसी कृति का चयन करना ही मुश्किल हो चला है। इसका असर बिग ब्रश पर भी पड़ा है। उन तक पहुंचने के रास्ते में कई-कई भ्रामक कृतियों का जाल सा बिछ गया है।
हम यह नहीं कह रहे कि बिग ब्रश माने जाने वाले कलाकारों की कृतियां ही श्रेष्ठ हैं। कई छोटे कलाकारों की कूंची में भी दम है जो मिडिल क्लास की जेब और उनके कला के प्रति आग्रह को संतुष्टि देने में सक्षम है। वहीं विद्यार्थी स्तर पर देखा जाए तो कई ऐसे हैं जिनके पांव पालने में ही नजर आ रहे हैं। ऐसे विद्यार्भी कला फलक के बड़े सितारे के रूप में उबर कर सामने आ सकते हैं। लेकिन इन सब के बावजूद कला साधना को नकारते हुए किसी कारखाने के उत्पाद सी कृतियों से भरे बाजार ने कला खरीददारों को भ्रमित व निराश करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। मिथ्या मूल्य निर्धारण ने इसमें कोढ़ पर खाज सी स्थिति उत्पन्न कर दी है।
आज जब 'कला' पूंजी निवेश के महत्वपूर्ण पायदान पर आ खड़ी हुई है, ऐसे में कला के कचरे से अटा बाजार उसे क्या दिशा देगा, यह सोच का विषय है।
क्या अधकचरी कृतियां कला खरीददार की 'निवेश' की भावना को खण्डित कर देगी? यदि ऐसा होता है तो कला निवेश को पुन: स्थापित करने में एक लम्बा समय लग जाएगा जो कला जगत के लिए अभिशाप सिद्ध होगा। इससे बचने के लिए 'कला-नीति' बनाना और सक्षम संस्थाओं द्वारा कढ़ाई से निभाना एक उपाय नजर आ रहा है। इसके साथ ही शौंकिया और साधनाहीन कलाकारों का एक अलग बाजार बनाना, कला विद्यार्थीयों के शिक्षा पूर्ण होने से पहले ही बाजार में कूदने की प्रवृति पर लगाम कसना भी कला बाजार के रूप को बिगडऩे से बचा सकता है।
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-संपादक