हो सकता है यह सवाल किसी नॉनसेंस से भी बदतर हो लेकिन, लोग सवाल उठा रहे हैं कि
'राजस्थान के कलाकारों को गुस्सा क्यों नहीं आता?'
ना समझ हैं वो लोग, जो यह सवाल उठा रहे हैं। उन्हें समझना चाहिए कि कलाकार एक संजीदा जीव होता है। बात-बात पर गुस्सा दिखाने पर इतनी मुश्किल से जुटाई गम्भीरता और संवेदनशीलता पर बुरा असर पड़ता है। अब दिल्ली में किसी बस में कुछ होता है तो जयपुर या उदयपुर के कलाकार क्या कर सकते हैं? ...और केवल गुस्सा करने से क्या हो जाएगा? अब कलाकार का अपराध और वह भी गैंगरेप जैसे अपराध से क्या लेना-देना? हमारी एक अलग दुनियां है, सुंदर रंगों और भावों वाली संवेदनशील और कोमल दुनियां। यह दुनियां समाज का हिस्सा थोड़े ही ना है। वैसे तो हम समाज की हर बात , हर विषय को अपनी अभिव्यक्ति प्रदान करते ही हैं। हमारी कृतियों को ऐसे ही समाज का दर्पण तो नहीं कहा जाता ना?
और यह आप कैसे कह सकते हैं कि हम कलाकारों को गुस्सा नहीं आता। अरे बहुत आता है। जब कला शिक्षकों को नौकरी नहीं मिलती तो हमें खूब गुस्सा आता है, जब कला मेले में योग्यजन को पुरस्कार नहीं मिलता तो बहुत गुस्सा आता है। जब हमारी अश£ील पेंटिंग्स को प्रदर्शनी से हटा दिया जाता है तो हमें गुस्सा आता है। जब हमारे कद के अनुसार पद नहीं मिलता तो हम गुस्सा जाहिर करते हैं। अब हर बात पर कहीं भी कैंडल लेकर अपनी बात नहीं कही जा सकती। हम अपनी बात कलात्मक तरीके से कहते हैं, इसके लिए लिए आइडिया आने का इंतजार करना होता है। समय आने पर, वक्त देख कर हम अपनी अभिव्यक्ति व्यक्त करते हैं। अब यह कोई ऐसी बात भी नहीं लग रही कि अपने पे्रस वाले मित्रों को बुलाकर बयान ही जारी कर दें।
नारी तो वैसे भी हमारा सबसे हिट विषय है, नारी के सम्मान और अस्मिता पर भी हमारी कूंची चलती ही है। ऐसे में हमें पॉजिटिव सोच रखते हुए केवल उसके रूप और सौंदर्य को कैनवास पर उकेरना चाहिए। उसकी प्रगति और उन्नती को दर्शाना चाहिए। गैंगरेप के बाद उसकी अंधेरी जिन्दगी दर्शाना नेगिटिविटी है। आप यह क्यों कहते हैं कि हम समाज का हिस्सा नहीं हैं, हम कलाकार भी अपने ब्रश और कैनवास एक तरफ रखकर साल में दो बार बच्चियों की पूजा करते हैं, उनके पैर धोकर उनका आर्शीवाद लेते हैं। साल में दो बार बहनों को उनकी रक्षा का वचन देते हैं। अब किसी रास्ते या बस में दरिन्दों से जूझती हर लड़की हमारी बहन या बच्ची तो नहीं है ना? हम क्यों उस पर अपना वक्त और रंग बर्बांद करें?
हां इस विषय पर कोई ढग की पेंटिंग्स वर्कशॉप आयोजित की जाए , उचित मानदेय दिया जाए... फिर देखिए हमारी अभिव्यक्ति कितनी जल्दी व्यक्त होती है। हमारे मन में भी बहुत दर्द है, सच मानिए, ऐसी घटनाओं के बाद हमारा दिल रोता है, लेकिन इस रुलाई को फूटने में कुछ वक्त लगता है, सही वक्त और मौका तो आने दीजिए। हमारी भावनाओं और संवेदनाओं पर सवाल मत उठाइए, देखिए हम तो इतने संवेदनशील है कि बादल धिरने पर भी छाते रंग देते हैं। टोपियां रंग कर अपनी बात कहते हैं। इस जघन्य घटना पर भी हम चुप नहीं रहेंगे, अपनी बात जरूर कहेंगे पर मौका तो आने दो...।
मानते हैं कि पूरा देश गुस्से में है, देश का गुस्सा देखकर देश के राजनेता सन्न हैं। अब हम भी राजनीति में किसी से कम तो नही हैं ना? इसलिए अभी तेल और तेल की धार देख रहें हैं। एकाएक गुस्सा कैसे जाहिर कर दें?
एक अनुरोध
कला जगत को कटघरे में लाकर सिर्फ हंगामा खड़ा करना 'मूमल' का मकसद नहीं।
हम वास्तव में बहुत शर्मिन्दा हैं कि हम इस काल में राजस्थानी कला जगत के कल्चर का वह हिस्सा हैं जो ऐसे मौके पर भी आंखे मुंदे रहा। एक लडकी की मौत ने जहां सारे देश को हिला डाला, हमें नहीं हिला सका।
अब शेष देश की तरह कैंडल जलाने, पेन्टिंग बनाने, पोस्टर उठाने या नारे लगाने का वख्त गुजर चुका है फिर भी स्त्री के सम्मान प्रति इन दिनों कोई ईमानदार अहसास आपकी आंखो में नमी लेकर उबरा हो तो चुपके से एक दीप 'दामिनी' के नाम जला कर उसके लिए इंसाफ की लो जरूर जला देना।
'राजस्थान के कलाकारों को गुस्सा क्यों नहीं आता?'
ना समझ हैं वो लोग, जो यह सवाल उठा रहे हैं। उन्हें समझना चाहिए कि कलाकार एक संजीदा जीव होता है। बात-बात पर गुस्सा दिखाने पर इतनी मुश्किल से जुटाई गम्भीरता और संवेदनशीलता पर बुरा असर पड़ता है। अब दिल्ली में किसी बस में कुछ होता है तो जयपुर या उदयपुर के कलाकार क्या कर सकते हैं? ...और केवल गुस्सा करने से क्या हो जाएगा? अब कलाकार का अपराध और वह भी गैंगरेप जैसे अपराध से क्या लेना-देना? हमारी एक अलग दुनियां है, सुंदर रंगों और भावों वाली संवेदनशील और कोमल दुनियां। यह दुनियां समाज का हिस्सा थोड़े ही ना है। वैसे तो हम समाज की हर बात , हर विषय को अपनी अभिव्यक्ति प्रदान करते ही हैं। हमारी कृतियों को ऐसे ही समाज का दर्पण तो नहीं कहा जाता ना?
और यह आप कैसे कह सकते हैं कि हम कलाकारों को गुस्सा नहीं आता। अरे बहुत आता है। जब कला शिक्षकों को नौकरी नहीं मिलती तो हमें खूब गुस्सा आता है, जब कला मेले में योग्यजन को पुरस्कार नहीं मिलता तो बहुत गुस्सा आता है। जब हमारी अश£ील पेंटिंग्स को प्रदर्शनी से हटा दिया जाता है तो हमें गुस्सा आता है। जब हमारे कद के अनुसार पद नहीं मिलता तो हम गुस्सा जाहिर करते हैं। अब हर बात पर कहीं भी कैंडल लेकर अपनी बात नहीं कही जा सकती। हम अपनी बात कलात्मक तरीके से कहते हैं, इसके लिए लिए आइडिया आने का इंतजार करना होता है। समय आने पर, वक्त देख कर हम अपनी अभिव्यक्ति व्यक्त करते हैं। अब यह कोई ऐसी बात भी नहीं लग रही कि अपने पे्रस वाले मित्रों को बुलाकर बयान ही जारी कर दें।
नारी तो वैसे भी हमारा सबसे हिट विषय है, नारी के सम्मान और अस्मिता पर भी हमारी कूंची चलती ही है। ऐसे में हमें पॉजिटिव सोच रखते हुए केवल उसके रूप और सौंदर्य को कैनवास पर उकेरना चाहिए। उसकी प्रगति और उन्नती को दर्शाना चाहिए। गैंगरेप के बाद उसकी अंधेरी जिन्दगी दर्शाना नेगिटिविटी है। आप यह क्यों कहते हैं कि हम समाज का हिस्सा नहीं हैं, हम कलाकार भी अपने ब्रश और कैनवास एक तरफ रखकर साल में दो बार बच्चियों की पूजा करते हैं, उनके पैर धोकर उनका आर्शीवाद लेते हैं। साल में दो बार बहनों को उनकी रक्षा का वचन देते हैं। अब किसी रास्ते या बस में दरिन्दों से जूझती हर लड़की हमारी बहन या बच्ची तो नहीं है ना? हम क्यों उस पर अपना वक्त और रंग बर्बांद करें?
हां इस विषय पर कोई ढग की पेंटिंग्स वर्कशॉप आयोजित की जाए , उचित मानदेय दिया जाए... फिर देखिए हमारी अभिव्यक्ति कितनी जल्दी व्यक्त होती है। हमारे मन में भी बहुत दर्द है, सच मानिए, ऐसी घटनाओं के बाद हमारा दिल रोता है, लेकिन इस रुलाई को फूटने में कुछ वक्त लगता है, सही वक्त और मौका तो आने दीजिए। हमारी भावनाओं और संवेदनाओं पर सवाल मत उठाइए, देखिए हम तो इतने संवेदनशील है कि बादल धिरने पर भी छाते रंग देते हैं। टोपियां रंग कर अपनी बात कहते हैं। इस जघन्य घटना पर भी हम चुप नहीं रहेंगे, अपनी बात जरूर कहेंगे पर मौका तो आने दो...।
मानते हैं कि पूरा देश गुस्से में है, देश का गुस्सा देखकर देश के राजनेता सन्न हैं। अब हम भी राजनीति में किसी से कम तो नही हैं ना? इसलिए अभी तेल और तेल की धार देख रहें हैं। एकाएक गुस्सा कैसे जाहिर कर दें?
एक अनुरोध
कला जगत को कटघरे में लाकर सिर्फ हंगामा खड़ा करना 'मूमल' का मकसद नहीं।
हम वास्तव में बहुत शर्मिन्दा हैं कि हम इस काल में राजस्थानी कला जगत के कल्चर का वह हिस्सा हैं जो ऐसे मौके पर भी आंखे मुंदे रहा। एक लडकी की मौत ने जहां सारे देश को हिला डाला, हमें नहीं हिला सका।
अब शेष देश की तरह कैंडल जलाने, पेन्टिंग बनाने, पोस्टर उठाने या नारे लगाने का वख्त गुजर चुका है फिर भी स्त्री के सम्मान प्रति इन दिनों कोई ईमानदार अहसास आपकी आंखो में नमी लेकर उबरा हो तो चुपके से एक दीप 'दामिनी' के नाम जला कर उसके लिए इंसाफ की लो जरूर जला देना।