शनिवार, 4 फ़रवरी 2012

आभार...उदयपुर, आभार।



पिछले दिनों उदयपुर के कला जगत में कुछ समय बिताने का मौका मिला। दरअसल मैं वहां मूमल के लिए छोटे से नए सेंटर की तलाश में गई थी। सच कहूं तो मैं बहुत डरते-डरते गई। जयपुर से उदयपुर तक के नौ घंटे की यात्रा में अधिकांश समय यही सोचते बीता कि पता नहीं मेरा प्रस्ताव जानकर लोग क्या-क्या कहेंगे? शायद यही ज्यादा सुनने को मिलेगा कि- 'मूमल' को तो कोई जानता नहीं या हमने तो कभी इसका नाम नहीं सुना। लेकिन, उदयपुर के कला-जगत में पहुंच कर एक के बाद एक अनेक सुखद अहसास हुए।


झीलों की नगरी में न केवल अनेकों नियमित पाठकों से मुलाकात हुई बल्कि वार्षिक शुल्क देकर मूमल मंगाने वाले कलाकारों और विद्यार्थियों से रूबरू होने का मौका भी मिला। प्रदेश में कलाकारों की सबसे पुरानी और धीर-गंभीर संस्था 'टखमण' के प्रांगण में अनेक वरिष्ठ कलाकारों को 'मूमल' की प्रतीक्षा करते पाकर मैं हैरान रह गई। दरअसल कला दीर्घाओं के दौरे में खोने के कारण मैं यहां देर से पहुंची थी।मन ही मन अपनी अक्षम्य भूल के लिए लज्जित होते हुए मैं उनके बीच पहुंची। यहां देरी के लिए क्षमा या सॉरी जैसे शब्द पर्याप्त नहीं थे। एक चुप-सी लग गई। बात संपादक राहुलजी ने शुरू की।


कुछ देर में साफ हो गया कि बड़े कलाकारों का बड़प्पन क्या और कैसा होता है? यह भी जाना कि कोई कलाकार केवल बेहतर काम से ही बड़ा या वरिष्ठ नहीं हो जाता। इसके लिए बड़ा दिल और बड़ी सोच की भूमिका कितनी अहम होती है। देशभर में पहचान बनाने वाले उदयपुर के बड़े-बड़े कलाकारों ने बड़े भाईयों सी आत्मीयता से वातावरण को इतनी कुशलता से सामान्य बना दिया कि मैं सारी झिझक भूलकर छोटी बहन सी इठलाने लगी। 'मूमल' के लिए उनके सामने फरमाइशों के ढेर लगा दिए... और सब की सब पूरी हुईं। कोई किंतु-परंतु भी नहीं, झोली भर के मिली बड़े भाईयों की सी तथास्तु ही तथास्तु।


इससे पहले कमोबेश यही भाव उदयपुर की कला दीर्घाओं में देखने को मिला। ऊंची अरावली की गोद में छुपी किसी नीची सी दुकान में छुपी नन्हीं सी गैलेरी हो या गहरी झील के किनारे आच्छादित किसी बड़ी-सी बेल के बूटे-बूटे पर बिखरे मंहगे कामों वाली दमदार दीर्घा। कला के कद्रदानों की मिजाजपूर्सी के सभी सामानों से सजी नई शताब्दी की सोच वाली बहुमंजिली गैलेरी हो या जमीन से जुड़ कर कारागार में कैद कला को मुक्ताकाश में पंख फैलाने का अवसर देता कोई स्टूडियो। पेंटिग्स के विविध आयामों को आर्थिक रूप से संवारने में लगी कोई गैलेरी हो या केवल मूर्तिकला को नई जमीन मुहैया करता कोई स्कल्पचर कोर्ट। सभी एक से बढ़ कर एक।


लब्बो-लुआब ये कि झीलों की नगरी में बड़ी गैलेरीज के संचालकों की सच्ची सौम्यता उन्हें गुलाबी नगर की कुछ गैलेरीज के मनमौजी मालिकों से एक अलग पहचान देती है। आने वाले दिनों में अन्य प्रमुख गैलेरीज की तरह उदयपुर की आर्ट गैलेरीज से भी 'मूमल' का जुड़ाव होगा। कुल मिलाकर उदयपुर में मूमल को पहले से मिली हुई पहचान और ताजा रेस्पोंस से मैं उत्साहित हूं। वहां भी मूमल को जयपुर जैसा ही प्यार और दुलार मिले यही कामना है।


आभार...उदयपुर, आभार।

कोई टिप्पणी नहीं: