सोमवार, 13 फ़रवरी 2012

अल इखलास में इंडो इस्लामिक आर्ट फेस्टिवल

मूमल नेटवर्क, अजमेर। अजमेर शहर की पहली निजी कला दीर्घा के रूप में सामने आई 'अल इखलास गैलेरी' में पिछले दिनों इंडो इस्लामिक आर्ट फेस्टिवल सम्पन्न हुआ। इस समारोह में मुख्य रूप से कला के सूफी रूप और मुगल मिनिएचर पेटिग्स के साथ सके्रड आर्ट के पीस प्रदर्शित किए गए। फॅाय सागर रोड पर स्थित इस गैलेरी का यह पहला आयोजन था। चार दिन चले इस आयोजन को शहर के कला प्रेमियों के साथ विभिन्न स्कूल और कॉलेजों के कला विद्यार्थियों ने भी देखा।


गैलेरी में अजमेर के कलाकार मदन सिंह राठौर के मिक्स मीडियम में किए गए फ्यूजन वर्क व विजय सिंह चौहान की मिनिएचर पेंटिग्स प्रदर्शित की गई। इन्हीं के साथ डिजिटल आर्ट के कुछ काम भी प्रदर्शित किए गए जो एम. टेम्पलिन के हैं। इसी के साथ 'सके्रड आर्ट' के रूप में गैलेरी की ऑनर गुलशा बेगम की कलाकृतियां भी देखने को मिलीं। गुलशा बेगम कला और मानवता के प्रति समर्पित एक फैशन डिजाइनर उद्यमी हैं। वे आध्यात्मिक संगठन 'डिवाइन एबोड' की संस्थापक और अध्यक्ष भी हैं जो सभी धर्मावलंबियों को एकजुट करके शांति और सद्भाव का सच्चा संदेश देने के उद्देश्य से स्थापित किया गया है। वे बताती हैं कि यह संगठन महिलाओं और बच्चों के उत्थान के लिए विभिन्न कार्यक्रमों का आयोजन भी करता है।
क्या है सक्रेड आर्ट? :सके्रड आर्ट को कला की रहस्यवादी दुनियां का एक अतिरिक्त हिस्सा है। जब कलाकार का मन भाव के उच्चतम स्तर पर होता है तो रंगों के उत्सव में उसकी तुलिका या कला सृजन के माध्यम पवित्र नृत्य करने लगते है। इसी जादू के बाद जो कुछ साकार होता है वही सके्रड आर्ट है। यह एक प्रकार से कला समाधि की स्थिति में उपजे आकारों और रंगों का परिणाम है। यह एक पवित्र रूहानी अहसास सा है जिसे केवल महसूस किया जा सकता है, इसे एक्सप्लेन करना आसान नहीं है।




एक साथ...सोलह कैनवास!: गुलशा बेगम जब सके्रड आर्ट को कैनवास पर उतारने लगती हैं तो उनके कलाकार मन से उभरने वाले भाव इतने तीव्र होते हैं कि एक-दो या पांच-सात कैनवास उन्हें समेट नहीं पाते। ऐसे में वे कैनवासों की संख्या बढ़ाती जाती हैं। पिछली बार उन्होंने अपनी भावनाएं समेटने के लिए स्टूडियों में एक वक्त पर सोलह कैनवास लगाने पड़े थे।




''हम यहाँ कला को सभी प्रकार के प्रोत्साहन देने के लिए हैं। हम मानते हैं कि कला से जुड़ा हर पक्ष दिव्य है। हम यहाँ किसी एक धर्म या समुदाय आधारित कला को बढ़ावा देने के लिए काम नहीं कर रहे हैं। गैलरी में विभिन्न धर्मों से जुड़े कई कलाकारों के काम प्रदर्शित हैं। मेरे लिए आध्यात्मिकता सार्वभौमिक है। इसे कोई विशेष नाम नहीं दिया जा सकता। हम कला की दुनियां में सभी प्रकार के कलाकारों को प्रोत्साहित करने के लिए प्रतिबद्ध हैं। अल इखलास गैलरी किसी समुदाय विशेष के लिए नहीं है, यह हमारे डिवाइन एबोड नामक संगठन का एक हिस्सा है जो पूरी तरह से एक आध्यात्मिक संगठन है । यह आध्यात्मिकता का सार्वभौमिक रूप है, जो सभी धर्मों में विश्वास करता हैं।" -गुलशा बेगम, संस्थापक अध्यक्ष, डिवाइन एबोड

शनिवार, 4 फ़रवरी 2012

आभार...उदयपुर, आभार।



पिछले दिनों उदयपुर के कला जगत में कुछ समय बिताने का मौका मिला। दरअसल मैं वहां मूमल के लिए छोटे से नए सेंटर की तलाश में गई थी। सच कहूं तो मैं बहुत डरते-डरते गई। जयपुर से उदयपुर तक के नौ घंटे की यात्रा में अधिकांश समय यही सोचते बीता कि पता नहीं मेरा प्रस्ताव जानकर लोग क्या-क्या कहेंगे? शायद यही ज्यादा सुनने को मिलेगा कि- 'मूमल' को तो कोई जानता नहीं या हमने तो कभी इसका नाम नहीं सुना। लेकिन, उदयपुर के कला-जगत में पहुंच कर एक के बाद एक अनेक सुखद अहसास हुए।


झीलों की नगरी में न केवल अनेकों नियमित पाठकों से मुलाकात हुई बल्कि वार्षिक शुल्क देकर मूमल मंगाने वाले कलाकारों और विद्यार्थियों से रूबरू होने का मौका भी मिला। प्रदेश में कलाकारों की सबसे पुरानी और धीर-गंभीर संस्था 'टखमण' के प्रांगण में अनेक वरिष्ठ कलाकारों को 'मूमल' की प्रतीक्षा करते पाकर मैं हैरान रह गई। दरअसल कला दीर्घाओं के दौरे में खोने के कारण मैं यहां देर से पहुंची थी।मन ही मन अपनी अक्षम्य भूल के लिए लज्जित होते हुए मैं उनके बीच पहुंची। यहां देरी के लिए क्षमा या सॉरी जैसे शब्द पर्याप्त नहीं थे। एक चुप-सी लग गई। बात संपादक राहुलजी ने शुरू की।


कुछ देर में साफ हो गया कि बड़े कलाकारों का बड़प्पन क्या और कैसा होता है? यह भी जाना कि कोई कलाकार केवल बेहतर काम से ही बड़ा या वरिष्ठ नहीं हो जाता। इसके लिए बड़ा दिल और बड़ी सोच की भूमिका कितनी अहम होती है। देशभर में पहचान बनाने वाले उदयपुर के बड़े-बड़े कलाकारों ने बड़े भाईयों सी आत्मीयता से वातावरण को इतनी कुशलता से सामान्य बना दिया कि मैं सारी झिझक भूलकर छोटी बहन सी इठलाने लगी। 'मूमल' के लिए उनके सामने फरमाइशों के ढेर लगा दिए... और सब की सब पूरी हुईं। कोई किंतु-परंतु भी नहीं, झोली भर के मिली बड़े भाईयों की सी तथास्तु ही तथास्तु।


इससे पहले कमोबेश यही भाव उदयपुर की कला दीर्घाओं में देखने को मिला। ऊंची अरावली की गोद में छुपी किसी नीची सी दुकान में छुपी नन्हीं सी गैलेरी हो या गहरी झील के किनारे आच्छादित किसी बड़ी-सी बेल के बूटे-बूटे पर बिखरे मंहगे कामों वाली दमदार दीर्घा। कला के कद्रदानों की मिजाजपूर्सी के सभी सामानों से सजी नई शताब्दी की सोच वाली बहुमंजिली गैलेरी हो या जमीन से जुड़ कर कारागार में कैद कला को मुक्ताकाश में पंख फैलाने का अवसर देता कोई स्टूडियो। पेंटिग्स के विविध आयामों को आर्थिक रूप से संवारने में लगी कोई गैलेरी हो या केवल मूर्तिकला को नई जमीन मुहैया करता कोई स्कल्पचर कोर्ट। सभी एक से बढ़ कर एक।


लब्बो-लुआब ये कि झीलों की नगरी में बड़ी गैलेरीज के संचालकों की सच्ची सौम्यता उन्हें गुलाबी नगर की कुछ गैलेरीज के मनमौजी मालिकों से एक अलग पहचान देती है। आने वाले दिनों में अन्य प्रमुख गैलेरीज की तरह उदयपुर की आर्ट गैलेरीज से भी 'मूमल' का जुड़ाव होगा। कुल मिलाकर उदयपुर में मूमल को पहले से मिली हुई पहचान और ताजा रेस्पोंस से मैं उत्साहित हूं। वहां भी मूमल को जयपुर जैसा ही प्यार और दुलार मिले यही कामना है।


आभार...उदयपुर, आभार।