'मूमल' का संचालन बाजार के हाथ में हो या पाठक के?
'मूमल' के लिए उसका प्रत्येक पाठक एक विचार है, बाजार नहीं। हमारी यह धारणा आज के उस दौर में भी बनी हुई है, जब अखबार पाठकों के लिए नहीं बाजार के लिए हो चले हैं। कुछ बरसों पहले तक पत्रकारिता एक मिशन के तौर पर की जाती थी। तब इस काम को शिक्षित वर्ग में आजिविका से ज्यादा समाजसेवा के तौर पर किया जाता था और अखबार जनता तक सही जानकारी पहुंचाने का एक मात्र भरोसेमंद माध्यम था। आज समाचार पत्र प्रकाशन एक उद्योग के रूप में स्थापित हो चुका है। इनमें बड़े-छोटे सभी हैं। कुछ छोटे समाचार पत्र-पत्रिकाओं का वर्ग ऐसा भी है जो अभी तक अपने अस्तित्व के लिए जूझ रहा है। कुछ इस स्थिति से उभर चुके 'मूमल' जैसे मझोले पत्र हैं, जो बाजार के प्रभाव में होते हुए भी अपने पाठकों को बाजार से अधिक महत्वपूर्ण मानते हैं।
संपादक हुए प्रबंधक
पिछले एक अर्से में सम्पादक नाम का जीव प्रबंधक बनकर रह गया है। आज तेजी से बढ़ते अखबार अपने संपादकों को सिखा रहें हैं कि वे अपने पाठकों को पहचानें। उनकी नजर में उन पाठकों का कोई महत्व नहीं है जिनके पास बड़े बाजारों में खर्च करने को अतिरिक्त पैसा नहीं है। संपादकों को सिखाया जा रहा है कि वे केवल उन्हीं पाठकों को लक्ष्य करें जो बाजार में बेहतर खरीदारी करने में सक्षम हैं। हर बार पाठक सर्वे की रिपोर्ट में सबसे पहले यही देखा जाता है कि किस अखबार में 'हैसियतÓ वाले पाठकों की संख्या कितनी है।
डाक्टर बोला क्या?
इतना सब होते हुए भी सब कुछ खत्म नहीं हो गया है अखबार में सामाजिक सरोकारों की पैरवी करने वालों और उन सरोकारों को अभिव्यक्ति देने वाले प्रकाशकों और संपादकों की कमी नहीं है। ऐसे में आज मैने कलम तो चलाई है, लेकिन बहुत सोच-विचार कर। प्रकाशक गायत्री जी ने हिदायत दे रखी है कि इस विषय पर सभी आक्षेपों का पूर्वाानुमान करके आलेख तैयार करुं। मूमल के अब तक के अनुभव से जुड़े हर बिंदु को इस प्रकार समेटूं, जिससे पाठकों के समक्ष यह तस्वीर साफ हो सके कि शिल्प व कला जैसे विषय विशेष पर अखबार निकालना किस प्रकार तलवार की धार पर चलने के समान है। प्रकाशक की यह चिंता है कि हमारे ईमानदार प्रयासों के बावजूद कहीं कोई यह न कह दे - 'क्या आपको डॉक्टर ने कहा कि केवल कला और शिल्प पर ही अखबार निकालो?Ó इसी चिंता को ध्यान में रखते हुए पत्रकारिता पेशे की परेशानियां परोस रहा हूं।
पत्रकार हुए मीडियाकर्मी
कुछ समय पहले तक की प्रेस अब मीडिया बन गई है। इसी के साथ पत्रकार मीडियाकर्मी होते जा रहे हैं। जब तक पत्रकारिता थी तब तक प्रेस थी, अखबार थे, छपे हुए शब्द थे। भले ही अखबार छोटे थे परन्तु अनके संपादक बहुत बड़े होते थे। यह सब बीते कल की बातें हो गई। अब अखबार से पिं्रट मीडिया बन गए समाचार पत्र पढऩे के साथ देखने वाला उत्पाद बन गए। ऐसे में इनके पाठक कम और दर्शक अधिक हो गए। पत्रकारिता जब बाजार का उत्पाद बन जाए तो पाठक या दर्शक केवल ग्राहक होकर रह जाते हैं। किसी अखबार का संचालन जब बाजार का काकस करने लगे, तब अभिव्यक्ति की आजादी, लोकतांत्रिक सिद्धंात, मानव अधिकारों की रक्षा और एक खुले और स्वतंत्र समाचार माध्यम की बातें करना बेमानी हो जाता है।निर्णय आपकाकुल मिलाकर आपको यह निर्णय करना है कि आप बाजार की ताकतों से संचालित होने वाला एक और अखबार चाहते हैं या कम से कम एक ऐसा अखबार चाहेंगे जो वास्तव में पाठकों द्वारा संचालित होता हो। पाठकों की भागीदारी या दबाव किसी अखबार को सही रास्ते पर चलने को मजबूर कर सकता है। मगर उसके लिए पाठक को भी अपनी भूमिका के बारे में सोचना होगा। क्या वह एक अच्छे अखबार को उसका वाजिब दाम देकर खरीदने को तैयार है? यदि वह मुफ्त में या नाम मात्र के दाम पर अखबार चाहता है, तो उसे वही मिलगा जो बाजार चाहेगा, क्योकि लागत और बिक्री मूल्य के बीच का अंतर वही भर रहा है। -राहुल सेन
चलते-चलते ये भी
नापाठक तो पाखंडी!
नापाठकों के जानकार उनके बारे में कहते हैं-'रीडर इज अ नाइस हिप्पोक्रेटÓ क्यों कि मुक्त बाजार जो दिशा देता है अखबार उसी पर चलते हुए जो सामग्री परोसता है वह कई बार खूब रस लेकर पढ़ी जाती है। पाठक एक तरफ तो ऐसी सामग्री मजे लेकर पढ़ता है और वहीं बाद में यह आलोचना भी करता है कि अखबार में गंभीरता नहीं रही... यह चलताऊ हो गया है।
संपादक पर भारी प्रबंधक
इन दिनों अखबारों के कंटेंट (विषय वस्तु) संपादक नहीं प्रबंधक तय करते हैं। वे पत्रकारिता और मनोरंजन के बीच की सीमा रेखा को मिटा रहे हैं। प्रबंधक अखबारों का कलेवर तय करते हुए बताते हैं कि नए अंक में पाठक अखबार में क्या देखना चाहते हैं। वे संपादक से यह अपेक्षा भी रखते हैं कि पढऩे के लिए अखबार में कम से कम एक ऐसी चटपटी खबर जरूर हो, जिसे लेकर चर्चा होती रहे। उसमें ज्यादा तेज नहीं भी तो कुछ मसाला जरूर हो। भले ही ऐसी खबरों से संपादक की गंभीरता और संजीदगी की छवि प्रभावित होती हो।
गुरुवार, 19 जनवरी 2012
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